मुस्लिम महिलाओं को मिली 1000 साल पुरानी कुप्रथा से आजादी....
रीतिका शुक्ला
सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसकी वाह-वाह भी बहुत हुई कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में मुस्लिम महिलाओं ने इतने लंबे समय बाद तीन तलाक के मसले पर अपने हक की लड़ाई जीत ली है। ताज्जुब की बात तो यह है कि भारत में जिस तीन तलाक पर अब फैसला सुनाया गया है, वह दुनिया के 22 देशो में पहले से पूरी तरह बैन है। अच्छी बात यह है कि इस सूची में बांग्लादेश, सीरिया, पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देश भी शामिल हैं। प्रेरणा लेने वाली बात यह है कि कई देशों में तो मुस्लिम जजों की खंडपीठ ने महिलाओं का दर्द समझा और यह फैसला लिया।
एक बार में तीन तलाक के मुद्दे पर पांच महिलाओ शायरा बानो, गुलशन परवीन, आफ़रीन, आतिया साबरी, इशरत की जंग की जीत हुई। बात सिर्फ एक या पाँच महिलाओ का नहीं है, बात है महिलाओ के मौलिक अधिकारों के हनन का है। यहो भी साफ़ एक बात साफ़ है कि पुरुषों को सब अधिकार जन्म से मिलते है, जबकि महिलाओ को अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ती है। पूरा देश ने इस फैसले का स्वागत किया, इसमें वो लोग भी शामिल थे, जो यह कहते कि महिलाये जींस न पहने, वो अकेले रात को बाहर न निकले, वे भी जो बेटियों को अभिशाप मानते है। महिलाओं ने अब तक माँगा कि क्या था ? हर बार उनको अपना हक़ माँगना पड़ता है। भारत में एक तलाकशुदा मुसलमान पुरुष पर चार तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओ का आकड़ा है। यह जानकारी 2011 की जनगणना से प्राप्त हुई थी।
तीन तलाक और निजता अधिकार पर आए ऐतिहासिक फैसले से उम्मीद जगी है कि लगे हाथ संसद में भी महिलाओं को आरक्षण मिल जाएगा। कहते है कि जब हवा का झोंका आता है तो बहुत सी बंद खिड़कियां खुल जाती हैं।
तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने 395 पन्नों का यह फैसला दिया है। एक बार में तीन तलाक पर रोक लगा दी गई है, लेकिन अलग-अलग चरणों में तीन तलाक की प्रक्रिया पर रोक नहीं लगी है। आखिरी पन्नो के अनुसार, पुरुषो द्वारा तीन तलाक मनमाने तरीके से दिया जाता है, यह एक नई चीज़ है जिसकी कल्पना सुन्ना में नहीं है। यानी पैगंबर साहब के ज़माने में नहीं थी। इसे मज़हब के विरुद्ध माना गया है। फैज़ी की किताब में उल्लेखित है कि हनफ़ी स्कूल ने भी तीन तलाक़ को पाप माना है और ऐसा करने वालों के बारे में कहा गया है कि उससे अल्लाह नाराज़ होगा। सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में शमीम आरा के केस में तलाक़ के बारे में कहा है कि इसकी एक प्रक्रिया होगी, तलाक का वाजिब कारण होना जरूरी है और तलाक एक दम से नहीं दिया जा सकता है। तलाक से पहले दोनों पक्षों की तरफ से समझौते की कोशिश होगी और 2002 का फैसला सही है। 2 मई, 2002 को बांबे हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय औरंगाबाद बैंच ने दग्धू पठान बनाम रहीम बी दग्धू पठान के केस में कहा था कि अदालत मौखिक या लिखित तलाक को नहीं मानेगी। मुस्लिम दंपत्ति को अदालत में साबित करना होगा कि उनके बीच तलाक हो चुका है और शरियत कानून की सारी शर्तें पूरी की गई हैं।
तीन तलाक के सन्दर्भ में 1981 में असम हाईकोर्ट ने एक ऐसा ही फैसला दिया था और 2002 के शमीम आरा जजमेंट का उदाहरण तो है ही आपके सामने जिसमें तीन तलाक़ को अवैध करार दिया था।ऐसे फैसले कही न कही उम्मीद को जगाए रखती है। 2002 में बांबे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच केशमीम आरा के फैसले का उस वक़्त मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा किया गया था। मीडिया और महिलाओं के लगातार चलाए गए अभियान का असर यह हुआ कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी एक राय में बोलना पड़ा कि एक बार में तीन तलाक सही नहीं है। तीन तलाक से पहले आठ चरणों का होना ज़रूरी है। जिसमें वाजिब कारण से लेकर बीच-बचाव तक, सब शामिल हैं। संविधान पीठ के फैसले के आख़िरी पैराग्राफ में कहा गया है, क्योंकि तीन तलाक़ फ़ौरन हो जाता है, उसी वक्त शादी टूट जाती है और इसे वापस नहीं लिया जा सकता, बीच-बचाव भी नहीं होता है। प्रीवी काउंसिल ने रशीद अहमद के केस में बिना कारण बताए तीन तलाक़ को वैध माना था। इसलिए हमें लगता है कि तीन तलाक़ की व्यवस्था बेहद मनमानी है। इस तरह की तलाक़ अनुच्छेद 14 में बताए गए मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। चूंकि 1937 का शरीयत अधिनियम भी इस तीन तलाक को मानता है, लागू करता है इसलिए 1937 के एक्ट को असंवैधानिक घोषित किया जाता है।22 अगस्त के फैसले का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने स्वागत करते हुए कहा है कि चूंकि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ का भी सरंक्षण करता है और कहता है कि पर्सनल लॉ का परीक्षण कोर्ट मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के पैमाने पर नहीं कर सकती है। जजों ने बहुमत से पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकार की हैसियत दी है जो धार्मिक स्वतंत्रता के आर्टिकल 25 के तहत संरक्षित है।
महिलाओं को एक बार में तीन तलाक़ बोलकर उसके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया जाता है। मुझे ताज्जुब इस बात पर जो तीन तलाक 1950 के दशक में मुस्लिम देशों ने समाप्त कर दिया था, भारत 2017 में उसे हासिल कर जश्न मना रहा है।
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