विभा रानी: जिन्होंने रोग को ही राग बना लिया
इसके गीत इन्होंने ही लिखे हैं। वो एक लोक कलाकार तो हैं ही टीवी और फिल्मों के परदे को भी अपनी आवाज़ और अभिनय से समृद्ध कर चुकी हैं। अपनी खनकती हुई आवाज़ और अनूठी शैली के ज़रिये शादी ब्याह में गाए
जाने वाले गाली गीतों की परंपरा को वो आज भी जीवित रखे हुए हैं।वो कविता भी लिखती हैं कहानी और नाटक भी। इतना ही नहीं वो अनुवाद में भी सिद्धहस्त हैं। अपने निवास पर वे अवितोको रूम थिएटर के रूप में रंगमंच को लोकप्रिय बनाने का काम कर रही हैं। अवितोको एक ऐसी संस्था जो साहित्य नाटक संस्कृति शिक्षा आदि विभिन्न में काम करती है।इन्होंने जेल में बंद कैदियों के साथ भी साहित्य और नाटक के ज़रिये बहुत काम किया है। हम बात कर रहे हैं इस देश की एक सशक्त और जुझारू महिला विभा रानी की। आज विश्व महिला दिवस पर इनकी चर्चा बेहद ज़रूरी और प्रासंगिक है। विभा जी की जन्भूमि बिहार है। इसलिए बिहार की लोक संस्कृति उनके व्यक्तित्व में घुली मिली हुई है। फिलहाल वे मुम्बई में हैं। उनके पति अजय ब्रम्हात्मज वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं। विभा जी स्वयं इंडियन आयल कारपोरेशन में अधिकारी हैं।
उनका अपना एक ब्लॉग है 'छम्मकछल्लो कहिस'। इस ब्लॉग के ज़रिये वो देश दुनिया विशेषकर महिलाओं से जुड़े मुद्दे उठाती रहती हैं। लेकिन ठहरिये उनका सिर्फ इतना ही परिचय नहीं है। वो एक कैंसर सर्वाइवर हैं। उन्होंने न केवल कैंसर से जंग जीती बल्कि उसके प्रति लोगो में जागरूकता फ़ैलाने को अपना मिशन बना लिया। उन्होंने कैंसर पर कवितायेँ लिखी नाटक लिखे और उनका एकल मंचन भी किया। विभा जी ने जेल में बंद कैदियों के साथ भी साहित्य और नाटक के ज़रिये बहुत काम किया है। कैंसर से अपने युद्ध के दौरान उन्होंने बहुत सी कवितायेँ लिखीं जो अब एक संग्रह के रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं। पुस्तक का शीर्षक है समरथ कैन। यह हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध है। वे अब तक कथा सम्मान मोहन राकेश सम्मान घनश्याम दास सर्राफ साहित्य सम्मान डॉ महेश्वरी सिंह महेश सर्वोत्तम साहित्य सम्मान और

उनके लोकप्रिय एकपात्रीय नाटकों में बालचंदा , मैं कृष्णा कृष्ण की ,एक नई मेनका , भिखारिन। उनके दो नाटकों आओ तनिक प्रेम करे और अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो को मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित किया जा चूका है। वे भारत से बहार फ़िनलैंड और संयुक्त अरब अमीरात में भी अपने नाटको का प्रदर्शन कर चुकी हैं।
विभा जी ने भारतीय मिथकों का बहुत गहरा अध्ययन किया है। उनके नाटको और कविताओं में इस अध्ययन की गहरी छाप दिखाई देती है। उनकी कविताओं में दैनिक जीवन के रंग हैं। किसी पांडित्य या विद्वता का प्रदर्शन नहीं। यूं तो उनकी सभी कवितायेँ महत्वपूर्ण हैं लेकिन मन को सबसे ज़्यादा छूती हैं उनकी वो कवितायेँ जो उन्होंने कैंसर से अपने संघर्ष के दौरान लिखी। इन कवितायों में वो बेहद ज़िंदादिली से कैंसर जैसे भयंकर और डरावने रोग को कभी किस्सू डिअर तो कभी केंसू डार्लिंग कह कर बुलाती हैं। कैंसर पर लिखी कविताएं उन्होंने उन सभी लोगों को समर्पित किया है जिन्होंने कैंसर को कैंसर मानने से इंकार कर दिया है। और जीवन को जीने का हर भरोसा और मौका दिया।
तमाम जाँच पड़ताल के बाद जब उन्हें कैंसर होने की पुष्टि हुई तो उनके सामने दो ही स्थितियां थी। या तो वो हालात का मुक़ाबला रो कर करें या हंस का करें। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना। इसी कारण वे खुद भी हंस सकी और उनके आस पास के लोग भी मुस्कुरा सके। उन्हें लगा की कैंसर से वैसे ही माहौल ग़मगीन हो जाता है तो
क्यों न इससे जूझने जैसे शब्द के बजाय इसे मनाने और सेलिब्रेट करने जैसे शब्द का इस्तेमाल किया जाये।उन्होंने सेलेब्रटिंग कैंसर नाम से एक लेख भी लिखा। आज सेलेब्रटिंग कैंसर एक मिशन बन चुका है। इसके ज़रिये वो लोगो में कैंसर के प्रति जागरूकता लाने और एक सकारात्मक नजरिया जगाने की कोशिश में लगी हैं।कहना गलत न होगा की विभा जी ने अपने रोग को ही राग बना लिया है।
पूजा
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