हर किसी के पास एक कहानी है : इरफ़ान
गुफ्तगू ... राज्य सभा टी वी पर प्रसारित होने वाला एक ख़ास प्रोग्राम जो अपने फॉर्मेट के दूसरे शोज़ से बिलकुल अलग बिल्कुल अलहदा है।फिल्म और समाज के विभिन्न क्षेत्रोँ में सक्रिय ,रचनात्मक लोगों के साक्षात्कार पर आधारित इस कार्यक्रम के होस्ट हैं सैय्यद मोहम्मद इरफ़ान। इरफ़ान जी की सिर्फ आवाज़ ही नहीं अंदाज़ भी बेहद निराला है। इनकी सबसे ख़ास बात यह है कि ये वो अपने गेस्ट पर बेवजह हावी नहीं होते बल्कि उन्हें पूरी तरह से खुलने और उन्हें उनकी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी सुनाने का पूरा मौका देते हैं। इरफ़ान सिर्फ एक अच्छे एंकर ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलावों और उसकी प्रवृतियों पर भी अपनी पैनी नज़र रखने वाले एक जागरूक नागरिक भी हैं। गुफ्तगू और रेडियो की दुनिया के बेहद लोकप्रिय और जाने माने एंकर से हमने भी कुछ गुफ्तगू की।
इरफ़ान जी , हम अपने इंटरव्यू की शुरुआत भी वहीँ से करते हैं जहां से आमतौर पर आप भी शुरू करते हैं अपने प्रोग्राम गुफ्तगू में , तो सबसे पहले हमें ये बताइये कि आपकी पैदाइश कहाँ की है ? गुफ्तगू तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताइये।
मेरी पैदाइश जिला सोनभद्र की है। अभी ये जिला सोनभद्र हो गया, पहले मिर्ज़ापुर था। मिर्ज़ापुर सबसे बड़ा जिला यू पी का होता था। इसका हेडक्वॉटर रॉबर्ट्सगंज है। रॉबर्ट्सगंज मेरे बर्थ प्लेस से १६ किलोमीटर था। हमारी एक सीमेंट फैक्ट्री की माइन थी जो चारों तरफ से पहाड़ों से घिरी हुई थी। वहां रेडियो के सिग्नल बड़ी मुश्किल से आते थे। मेरे पिताजी के पास एक रेडियो हुआ करता था। वो रेडियो सुनने के और जानकारियों से लैस रहने के बहुत शौकीन थे। जब मैं रेडियो सुनता था तो लगता था कि ये तो बड़ा इंस्पायरिंग मीडियम है। मेरे मन में ये बात आई कि कभी मैं भी रेडियो पर बोलूं। और जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पढ़ने आया तो ग्रेजुएशन के दौरान ही मैं इलाहाबाद आकाशवाणी गया ऑडिशन के लिए। हालांकि मैं उसके लिए एलिजबल नहीं था लेकिन हंसी हंसी में ऑडिशन दे दिया और पता चला कि ऑडिशन क्लियर भी हो गया। वहां फिर मैंने रेडियो स्टेशन पर युववाणी वगैरह किया। उसी समय पढ़ाई के दौरान स्टूडेंट पॉलिटिक्स, थिएटर ,सिंगिंग वगैरह भी चलता रहा। उसी समय स्टूडेंट मैगज़ीन के लिए भी काम किया। वो एक तरह का सॉफ्ट जर्नलिज़्म हो ही गया। लिखना एडिट करना कंटेंट को पब्लिश होने लायक बनाना डिज़ाइनिंग करना सब साथ साथ चलता रहा।
फिर मैं पटना आ गया ४-५ साल के लिए। एक मैगज़ीन में बतौर आर्ट एडिटर। फिर उसी में असोसिएट एडिटर हुआ। फिर उस मैगज़ीन को हम दिल्ली ले कर आ गए। ९३ में। ९४-९५ में ऍफ़ एम् स्टेशन शुरू हुआ हुआ तो मैं उसमें आ गया । ऍफ़ एम् पर कई तरह के प्रोग्राम किये। फिर ९७ से मैं दिल्ली ऍफ़ एम् के पैनल पर रहा। और फिर १२- १३ साल मैं रेडियो का जाना माना नाम था। साथ साथ मैं एक फ्री लांसर के तौर पर नेशनल जिओग्राफिक , हिस्ट्री चैनल, हंगामा, कार्टून नेटवर्क इसके अलावा दूरदर्शन रेडियो जर्मनी इन लोगों के लिए फ्रीलासिंग वॉइस ओवर करने लगा। तो कुल मिलाकर कुछ लिखना कुछ पढ़ना प्रोडक्शन और ब्राडकास्टिंग भी चलता रहा । ब्राडकास्टिंग मेरा पहला प्यार है। २०११ तक बहुत एक्टिव रेडियो प्रैक्टिशनर की तरह काम किया। इस तरह प्रिंट जर्नलिज़्म में करीब ८-९ साल और फिर ब्राडकास्टिंग और फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया।
फिर राज्यसभा टी वी में आप कैसे पहुंचे ?
राज्यसभा टी वी में मुझे स्पेशली लिया ही इसलिए गया था कि मैं कुछ सिनेमा पर आधारित कार्यक्रम करूं। सिनेमा थीम ही मेरे पास थी। यहां सिनेमा को दूसरे ढंग से लिया गया। यहाँ ऐसा नहीं था कि किसी फिल्म का प्रमोशन करना है या किसी स्टार को ही बुलाना है । बल्कि सेंसिबल तौर सिनेमा को देखा जाना था। सिनेमा समाज के साथ कैसे जुड़ा हुआ है और कैसे वो डेमोक्रेसी को मज़बूत करता है। तो उस तरह से मैंने शुरू किया। इसी के साथ एक और शो था यादों के साये नाम से। जिसमे हम सांसदों की स्मृतियों में सिनेमा किस तरह रचा बसा है, ये जानने की कोशिश करते थे। इसके लगभग १३ एपिसोड हुए और जो बाद में गुफ्तगू में ही मर्ज हो गया।
![]() |
अक्षय कुमार के साथ |
आपने एक एपिसोड किया था एक ऑनलाइन डिजिटल एंटरटेनमेंट के एक यू ट्यूब चैनल पर। आज हम देखते हैं कि तमाम तरह के लोग यू ट्यूब के ज़रिये अपनी प्रतिभा को दिखा रहे हैं। तो क्या इसे वैकल्पिक मीडिया के तौर पर देखा जा सकता है ?
जब मैंने tvf पर एपिसोड किया तो मैंने ये बात महसूस की कि इस तरह के जो भी चैनल हैं वो मीडियम को डेमोक्रॅटाइज़ कर रहे हैं।क्योंकि अगर आपको रेडियो पर कुछ करना हो लाइसेंस लेना पड़ता है। टी वी पर कुछ करना हो तो उसकी भी एक प्रक्रिया है , लेकिन इंटरनेट पर थोड़ी कम शर्तें हैं। वहां सिर्फ एक ही चीज़ मैटर करती है और वो है आपका कंटेंट। जिस तरह वो लिबरेट हुआ सरकारी शर्तों से वो एक अच्छी बात है।उसके साथ साथ उसका बिज़नेस वाला पहलू भी नज़र आता है। इस तरह से नए लड़के लड़कियां करियर तलाशते हुए एक स्टार्टअप की तरह इसको कर रहे हैं। मेरा इंट्रेस्ट तो इस बात में था कि मैं ये देखूं की ये जो नए लोग इस मीडियम को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं उसका क्या तरीका उन्होंने अपनाया है और उसके बिज़नेस लॉजिस्टिक्स क्या हैं।
![]() |
गायिका प्रीती सागर के साथ |
लेकिन इस खुले हुए मंच का कभी कोई गलत इस्तमाल भी तो हो सकता है और बहुत हद तक होता भी है। इस बारे में आप क्या कहेंगे ? और यू ट्यूब की तरफ लोगों के बढ़ते रुझान की क्या वजह हो सकती है ?
हां वो तो होगा। जिस तरह आप बाज़ार में प्रोडक्ट को लेकर होड़ करते हैं उसी तरह से टेलीविज़न कंटेंट भी एक तरह का प्रोडक्ट ही है। अभी तक आप एक तरह से मोरल पुलिसिंग करते रहे, और हम लोगों के यहां जो मोरालिटी का स्टैंडर्ड है वो भी कास्ट हाइरार्की के साथ जुड़ा हुआ है यानि अच्छा क्या है बुरा क्या है क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए ये सब हमारी जो ब्राह्मण वादी सोच है उससे कंट्रोल्ड है और मैक्सिमम मीडिया में कंटेंट डिसाइड करने वाले लोग चाहे कंटेंट क्रिएट करने वाले हों, चाहे पालिसी बनाने वाले लोग हों वो कभी इस तरह से सोचते नहीं कि जो सोसाइटी में हाइरार्की में नीचे के लोग हैं उनकी भी कोई ज़िंदगी कोई जगह है। देखिये एंटरटेनमेन्ट की दुनिया तो कमर्शिअल बेनिफिट से ही चलती हैं।
ये टी आर पी और एड की गणित क्या है ?
देखिये टेलीविज़न दुनिया में दौड़ इस चीज़ की होती है कि कौन सा प्रोग्राम सबसे ज़्यादा देखा जा रहा। टी आर पी का भी मतलब यही होता है, कितने ऑय बॉल्स किसी कार्यक्रम को देख रहे। उसी हिसाब से उस प्रोग्राम को एड मिलेंगे। यानी कि पूरी जो टेलीविज़न की कहानी है वो तो मार्केटिंग की कहानी है। कितने लोग टी वी से चिपक के बैठे हुए हैं किसी पर्टिकुलर टाइम पर किसी पर्टिकुलर प्रोग्राम में। तो एड के रेट उसी हिसाब से तय होंगे। अलग अलग प्रोग्राम को मिलने वाले एड के रेट अलग अलग होंगे। कौन सा सोशल ग्रुप उसे देख रहा है और वो किस तरह के प्रोडक्ट का बायर है। राज्यसभा टी वी पर ऐसा कोई मार्केटिंग प्रेशर नहीं है। हम डेमोक्रेसी को समर्पित चैनल हैं। राज्यसभा टी वी अगर ये कर पर रहा है तो वो इसलिए कि उस पर कोई टी आर पी का दबाव नहीं है।
आप गुफ्तगू को दूसरे ऐसे शोज़ जो इंटरव्यू बेस्ड हैं , से किस तरह से अलग पाते हैं या यूँ कहे कि वो कौन सी बात है आपकी निगाह में जो इसे दूसरे प्रोग्राम्स से अलग करती है।
सबसे पहली बात तो हम इसमें केवल सिनेमा के ही लोगों को नहीं बुलाते।समाज के अलग अलग क्षेत्रों में अपना योगदान देने वालों को हम इसमें आमंत्रित करते हैं , चाहे फोटो ग्राफर्स हो बोटेक्नीकल गार्डनर्स हो पक्षी विज्ञानी हों या स्पोर्ट्स परसन हों। सिनेमा तो शायद इसका ६० - ७० परसेंट ही कवर करता है इसके अलावा। अभी तक तो यही माना जाता है न की सिनेमा मतलब हीरो हीरोइन। बहुत हुआ तो सिंगर , म्यूजिक डायरेक्टर। कभी आपको ये नहीं बताया गया की पर्दे के पीछे एक मेक अप आर्टिस्ट भी होता है , एक कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर भी होता है , कास्टिंग डायरेक्टर नाम की चीज़ होती है। ये बात आपको गुफ्तुगू के ज़रिये पता चलती हैं। हमारा मानना है कि एक क्रिएटिव चीज़ बनाने के लिए बहुत सारे लोगों की भूमिका होती है और उनके कामों को पब्लिक के सामने आना चाहिए।
देखिए सवाल पूछने की भी एक पॉलिटिक्स होती है, एक एजेंडा होता है। जो ग्लिटर और ग्लैमर के शोज़ हैं उनमे बहुत सेलेक्टिव सवाल पूछे जाते हैं। इन शोज़ में कोशिश इस बात की नहीं होती है कि जो सब्जेक्ट है उसको रिवील किया जाए बल्कि ये होता है कि जो औरा है उसे बनाये रखा जाए। हम अपने प्रोग्राम में इस बात पर ही ज़ोर देते कि सोसाइटी के कॉन्टेक्स्ट में कैसे उस व्यक्ति का डेवलेपमेन्ट हुआ। कैसे वो स्ट्रगल से बाहर निकल कर सक्सेस की तरफ बढ़ा।
![]() |
करन जौहर के साथ |
आपको क्या लगता है गुफ्तगू जैसे शोज़ की आज कितनी ज़रूरत है। इसका क्या उद्देश्य है मूलत: ?
देखिये , जब मैं बच्चा था तब भी टेलीविज़न था, तब भी फ़िल्में बनती थीं, तब भी डॉक्युमेंटेशन होता था ,कैमरे का अविष्कार हो चुका था। लेकिन फिर भी आज आपको कोई बताने वाला नहीं है कि मुकरी कौन था ,जीवन कहाँ पैदा हुए , जॉनी वॉकर कैसे एक बस कंडक्टर से एक्टर बने , लीला मिश्रा को कैसे घर से निकलना पड़ा , ललिता पंवार की आँख में चोट कैसे लगी। ये सारी कहानियां ये सारे आइकन्स जो लगभग अभी पिछले कुछ वर्षों में मरे हैं उनके डॉक्युमेंटेशन की सारी सुविधाएं होते हुए भी नहीं सुरक्षित रख पाए। मतलब के आसिफ ने जो मुग़ले आज़म बना दी या शोले जो सिलेबस में पढ़ाई जाती है या गुरुदत्त ने प्यासा में जो कमाल किया ये सारी कहानियां परदे के पीछे कैसे बनी इसको बताने का कोई मेकेनिज़म नहीं है हमारे पास।
![]() |
जॉनी वॉकर एक हास्य मुद्रा में |
इसका श्रेय मैं अपनी जिज्ञासा को दूंगा। भाषा सम्प्रेषण का एक माध्यम है और अक्सर लोग एक विशेष भाषा बोल कर अपनी सामाजिक हैसियत दिखाना चाहते हैं , मसलन मध्यमवर्गीय परिवारों में अक्सर ये देखा जाता है की समाज में खड़े होने के लिए आप उस भाषा को सम्प्रेषण का माध्यम बना लेते हैं जो आपकी अपनी नहीं है। इस कोशिश में न तो आप अपनी भाषा, जो आपकी माँ बोली है उसके हो पाते हैं न उस पराई भाषा के हो पाते हैं। हम हिंदी भाषी लोग अक्सर इस बात चिढ़ते रहते हैं कि जब कोई बंगाली आपस में मिलते हैं तो बंगाली में बात करने लगते हैं , तमिलियन आपस में तमिल में बात करने लगते हैं। लेकिन आप देखिए कि वो अपनी माँ बोली का बहुत सम्मान करते हैं। जबकि हम अपनी भाषा, अपनी बोली को लेकर बहुत बीमार मानसिकता वाले लोग हैं। इसीलिए आंध्रा में, कर्नाटक में १०- १० साल रहने के बावजूद हम उनकी भाषा नहीं सीख पाते। जबकि वो लोग हमारी तरफ आकर हिंदी सीख लेते हैं। और पंजाबियों को देखिये कि वो जर्मनी जाते हैं तो जर्मन बोलने लगते हैं और रूस जाते हैं तो रशियन बोलने लगते हैं। जबकि हम लोग बहुत पूर्वाग्रह से भरे हुए लोग हैं।
आपको नहीं लगता कि पढ़ने लिखने के प्रति हमारी अरुचि और उदासीनता भी इसकी एक वजह है ?
बिलकुल। आज पढ़ने लिखने से रिश्ता बिलकुल टूट चूका है। इसका भी असर हमारी भाषा पर पड़ता है। आज तो हालत ये है कि अगर कोई पढ़ रहा हो तो उससे पूछ लिया जाता है कि क्या कोई एग्जाम है क्या। मेट्रो में ट्रेनों में आप देखें तो अक्सर लोग धार्मिक पुस्तक या ज़्यादा से ज़्यादा अखबार पढ़ते हुए नज़र आ जायेंगे। हमारी पसंद न पसंद भी कंडीशन्ड है। हमारा पूरा समाज जिसमे मीडिया भी शामिल है हमारी ओपिनियन बिल्डिंग का काम करती है। अब आप देखिये कि किताबों को ले कर भी हमारी पसंद नापसंदगी भी तो इसी कंडीशनिंग के हिसाब से बनती है। इसलिए उन किताबों का चर्चा ज़्यादा सुनाई देता है जो एक तरह से फैशन में होंगी और जो आपको किसी भी तरह की सोशल रेस्पॉन्सिबिल्टी से बचाएंगी। आपको यथास्थितिवादी बनाएंगीं। किसी भी अच्छे साहित्य का काम है कि आप चीज़ों पर सवाल खड़े कर पाएं। यानी कि आप उसको अपने से डिटैच हो कर देख पाएं कि ऐसा हो रहा है तो क्यों हो रहा है ?
देखिये दो तरह की पढाई होती है एक तो वो जो आपकी मान्यताओं आपके विश्वासों को और पुष्ट करती है या कम से कम उसे स्वीकृति प्रदान करती है और दूसरी वो जो आपकी मान्यताओं पर प्रहार करती है और आपको सोचने पर विवश करती है। चूंकि दूसरी तरह वाली पढ़ाई आपको असहज करती है इसलिए आप उससे दूरी बनाते हैं। ये एक ऐसा विषय है जिसमे ख़ास कर हिंदी भाषी इलाकों में बहुत उथल पुथल की ज़रूरत है। अभी बहुत दिन नहीं गुज़रे जब हमारे घरों में निर्मला, रंगभूमि पढ़ी जाती थी। उनके पन्ने हल्दी और तेल से रंग जाते थे क्योंकि गृहणियां भी खाली समय में पढ़ा करती थीं। तब साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाएं भी हुआ करती थीं। अभी क्या है आपके पास टेलीविज़न है , उसी से पूरा ओपिनियन बिल्डिंग है। इसलिए शिव की गुफा कहाँ मिली इसमें आपकी रूचि ज़्यादा होगी बजाय इसके कि जब इंसान ने पहिया बनाया तो उससे क्या सामाजिक रूपांतरण हुए।
लेकिन फिर भी आज कितने लोग हैं जो गुफ्तगू देखते हैं या उसके बारे में जानते भी हैं ? अधिकांश लोग वो ही देखना चाहते हैं जिसमे कुछ मिर्च मसाला हो कुछ नाच गाना हो।
ये जिन अधिकांश लोगों की बात आप कर रही हैं वो दरअसल यथास्थिति के सताये हुए लोग हैं। ये नहीं जानते कि इनके साथ हो क्या रहा है। इनके साथ सहानुभूति ज़ाहिर की जा सकती है। ये जो शिकायत करते हैं कि हमे जो दिखाया जाता है वही तो देखेंगे। इन लोगों के विषय यही कहा जा सकता है कि दरअसल आपने अपनी रुचियों को कमाया नहीं है। आपने कभी बैठ कर ये नहीं सोचा कि आप जो चुन रहे हैं वो क्या है। मिसाल के तौर पर अगर आपने रूप को लेकर ,रंग को लेकर, धन को लेकर, वैभव को लेकर अपने मन में कोई क्रिटिकल फैकल्टी विकसित नहीं की तो हर बार आप अपनी लड़की की शादी के लिए दहेज की साइकिल में फंसे रहेंगे। या फिर लड़के के लिए माधुरी दीक्षित तलाशते रहेंगे। मतलब आप मानवीय गुणों को छोड़ कर ये देखेंगे कि किसके पास बड़े घर, बड़ी गाड़ियां हैं। जिनके पास अच्छा गायन है ,जिनके पास अच्छा कहानी कौशल है, जिनके पास अच्छी चित्र कला है उनको आप नीची दृष्टि से देखेंगे। और इस तरह से आप एक ऐसा समाज बनाते चले जाएंगे जिसमे चार बोतल वोदका पर आप अपनी बर्थ डे पार्टी पर नाचेंगे तो आप भूल जाएंगे कि ये जो चार बोतल वोद का है उनका कोई लॉन्ग रन इम्पैक्ट भी होगा। कभी बच्चे बड़े भी होंगे।
![]() |
जैकी श्रॉफ के साथ |
आज लोगों ने अपनी रुचियों को विरूपित कर लिया है। अभी उन्हें दिख नहीं रहा लेकिन सच तो ये है ऐसा कर के वो अपने बच्चों और पूरे परिवार के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं और जब तक उन्हें इस बात का एहसास होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। अगर आपने बच्चों को नाकामयाबी को सेलीब्रेट करना नहीं सिखाया तो कल यही होगा कि वो अपने किसी साथी की हत्या कर देगा या खुद सुसाइड कर लेगा। आप देखिये कि बोर्ड एक्जाम्स में बच्चे किस तरह तनाव ग्रस्त रहते हैं। अगर उन्हें ये पता हो कि उनके कम नंबर लाने या फेल हो जाने पर भी उन पिता उनके सर पर हाथ फेर के कहेंगे कि कोई बात नहीं बेटा ऐसा हो जाता है तो वो कभी कोई आत्मघाती कदम नहीं उठाएंगे।
धन्यवाद इरफ़ान जी। आपसे बात करना बेहद सुखद अनुभव रहा। खिड़की की पूरी टीम की तरफ से आपको बहुत बहुत शुभकामनायें।
इरफ़ान से feedback.rstv@gmail.com पर संपर्क किया सकता है।
गुफ़्तगू का फेसबुक पेज है https://www.facebook.com/ Guftagoo/
प्रस्तुति : पूजा
Comments
Post a Comment