विषाक्त मर्दानगी (Toxic Masculinity) के पुरुषों पर साइड इफेक्ट

   

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रीतिका शुक्ला 

विषाक्त मर्दानगी (toxic masculinity)हमारे समाज की बहुत पुरानी धारणा है। यह अवधारणा ऐतिहासिक रूप से लिंग रूढ़ियों से जुड़ी हुई है। इसी के अनुरूप ही पुरुषों की मर्दानगी वाली छवि भी बनी हुई है । हालांकि कई ब्रांडस ने इस सोच को अब पुरुषों की इस छवि को बदलने का प्रयास कर रहे है। ऐसे में विषाक्त मर्दानगी पर चर्चा होना बेहद जरूरी है, क्योंकि यह सोच हमारे समाज और स्वयं पुरुषों को नुकसान पहुंचाती हैं । यह सोच कहीं न कहीं सामाजिक रूप से पुरुषों से जुड़ी पारंपरिक रूढ़ियों जैसे जेंडर रोल और होमोफोबिया से जुड़ी हुई है और यह हिंसा को बढ़ावा देने के कारण "विषाक्त" मानी जाती है । पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों का समाजीकरण अक्सर हिंसा को सामान्य कर देता है । उनके हिंसात्मक रवैये और आक्रामकता को भी उनकी मर्दानगी से जोड़ा जाता है । हमारी सोसाइटी में “Men will be Men” समझा जाता है ।

हमारे समाज में मर्दानगी को लेकर बहुत बड़ा टेबू है कि मर्द को दर्द नहीं होता। उनको बचपन से ही सिखाया जाता है कि वो आदमी है और वो लड़कियों की तरह नहीं रो सकते है। अगर किसी वजह से रोना आ भी जाए, तो लोग कहते है कि यह क्या लड़कियों जैसे रो रहे हो। यह इस हद तक है कि इस मानसिकता से ग्रसित आदमी उनके घर में भी किसी की मौत होने पर भी नहीं रोते है और अपने दर्द को अपने दिल में ही छिपाकर रखते है। लड़को को बचपन से ही खुलकर अपने इमोशन्स को एक्प्रेश तक नहीं करने दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सभी पुरुष एक जैसे होते है। कुछ पुरुष महिलाओं  के प्रति एक बैलेंस एटीट्यूट रखते हैं और उनकी परेशानियों के प्रति सेंसेटिव होते हैं। हमारे समाज में ऐसे पुरुषों का भी मजाक बनाया जाता है और उन पर संवेदनहीन टिप्पणी की जाती है। इस तरह वे भी समाज में हंसी के पात्र हो जाते है। 

        एक महिला की तरह एक मर्द का व्यवहार भी पूर्व निर्धारित होता है। जैसे खाना बनाना लड़कियों का काम है और अगर किसी लड़के को कुकिंग में रुचि हो, तो उसके परिवारवालें और दोस्त उसका मजाक उड़ाते है और कहते है कि ये क्या लड़कियों जैसा खाना बना रहे हो ।  
मर्दानगी की सोच कितनी विषाक्त है, इसका पता इस बात से भी लगाया जाता है कि पुरूषों का पिंक कलर पहनना बुरा समझा जाता है। दरअसल पिंक कलर को लड़कियों का रंग कहा जाता है, तभी महिलाओं के सभी प्रोडक्ट को पिंक कलर की पैकिजीग में रखा जाता है, लेकिन सभी लड़कियों का फेवरेट कलर पिंक नहीं होता, वैसे ही कई लड़को को पिंक कलर अच्छा लगता होता है। वैसे ये कहने में तो आसान लगता है, लेकिन अक्सर पिंक कलर पहनने पर उन्हें ट्रोल किया जाता है कि तूने ये क्या लड़कियों का पिंक कलर पहना है,  लड़की है क्या। ऐसी बाते आपने भी कभी न कभी जरुर सुनी होगी ।

 
              इस तरह की सोच के चलते बचपन से ही लड़कों को लड़कियों के खिलौनों से खेलने तक नहीं दिया जाता है। लड़कों और लड़कियों के खिलौने भी अलग ही होते हैं । अब सोचिए कि आखिर ये कैसी मर्दानगी है, जो किसी रंग के कपड़े या खिलौने से खत्म हो जाती है । ऐसा कर देने से ही वह नामर्द की श्रेणी में आ सकते हैं ।

    हर इंसान की अपनी पर्सनालटी है और उनकी इंडीविजुएलिटी है, जो टॉक्सिक मर्दानगी से प्रभावित होती है। बचपन से ही जेंडर रोल डिसाइड होते हैं औऱ उसी के मुताबिक पुरुषों का व्यवहार होता है। जैसे लड़कियां फैशन करती हैं और लड़कियों को तैयार होने में बहुत समय लगता है। अगर लड़के तैयार होने में अधिक समय लगाते है, तो उनकी तुलना लड़कियों से की जाने लगती है। ऐसा ही कुछ विवेक के साथ हुआ, जब वो अपने दोस्त की पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रहे थे। उनके कुछ दोस्त उनको लेने के लिए उनके घर आए हुए थे । वह तैयार हो रहे थे, लेकिन तैयार होने में उन्हें काफी समय लग गया, तो उनके दोस्तों ने इसी बात पर उन्हें सुनाना शुरू कर दिया कि क्या तू लड़कियों की तरह तैयार हो रहे है, इतना समय तो लड़कियां भी तैयार होने में नहीं लगाती है ।

      दिल्ली निवासी संदीप एक एनिमल लवर है। उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा शेयर किया और बताया कि जब मैं लगभग 15 साल का था, तब मेरे पिता ने मुझे घर के पास छोटे-छोटे पिल्लों के साथ खेलते देख लिया। यह देखकर वो बहुत गुस्सा हो गए, क्योंकि उनके साथ उनके कुछ दोस्त भी थे, जो मुझ पर हंस रहे थे। घर पर आकर पापा ने मुझे बहुत डाटा कि यह क्या तू लड़कियों की तरह पिल्लों के साथ खेल रहा है, अब तू बड़ा हो गया है और अब तेरी उम्र पिल्लों से खेलने की नहीं है। लोग तुझे ऐसे देखेगे, तो क्या बोलेगे। यह भले ही छोटी सी बात लगे, लेकिन इसका असर बहुत गहरा होता है। आखिर पुरुषों का सॉफ्ट हार्टेड होना कैसे गलत हो सकता है। उन्हें हमेशा रफ एंड टफ एकदम मर्द टाइप क्यों होना चाहिए। एक विचारधारा यह भी है कि औरत ही औरत को समझ सकती है, लेकिन ऐसा जरुरी नहीं, क्योंकि कई पुरुष भी साफ्ट हार्टेड होते है। यह लिंग से जुड़ा एक मिथक है, जो पुरुष को सख्त दिखाता है। ऐसे कई और मिथक है, जो पुरुषों से जुड़े हुए है।

        ऐसा ही कुछ अनुभव लखनऊ एक प्राइवेट कालेज से फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई कर रहे नितिन को भी हुआ। नितिन का फेवरेट कलर पिंक है और एक दिन वो पिंक कलर का शर्ट पहनकर अपने किसी दोस्त से मिलने गए। उनके दोस्त ने उन्हें देखकर बहुत मजाक उड़ाया और बोला कि क्या तू ये लड़कियों वाला रंग पहनकर आया है, फैशन डिजाइनिंग करते करते तेरा टेस्ट भी लड़कियों वाला ही हो गया है। तू लड़की होता जा रहा है, मैने तो सुना है कि इस इंडस्ट्री में सब गे होते है। महज एक रंग से कोई लड़का या लड़की नहीं हो जाता और यह भी गलत है कि सब लड़कियों को पिंक कलर पसंद होता है। वैसे ही लड़को का फेवरेट कलर पिंक हो सकता है। यह महज एक रंग है और इसे मर्दानगी से जोड़कर देखना गलत है।

      विषाक्त मर्दानगी हम पर इस हद तक हावी हो चुकी हैं कि हम इंसानियत को भूलते जा रहे हैं। हम दूसरों की भावनाओं की इज्जत करना भी भूल चुके है। यह कैसी सोच है, जो लोग अपनी पसंद का रंग और अपना पसंदीदा कार्य नहीं कर सकते है। साफ तौर पर बोले तो परिवार की शक्ति, धन और राजनीति पर पुरुषों के विशेषाधिकार को बनाए रखने के लिए इस प्रकार के समाज की स्थापना की गई थी, जिसे अब बदलने की आवश्यकता है।


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Writer- Ritika Shukla

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