भीड़तंत्र या न्यायतंत्र ??
रीतिका / पूजा
पिछले दिनों मैंने एक फिल्म देखी , ट्यूबलाइट। फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं था जिसका ज़िक्र किया जा सके सिवा एक चीज़ के। और वो एक चीज़ है गाँधी जी के कुछ विचार, कुछ संदेश जो उन्होंने हमारे लिए रख छोड़े हैं। मुझे इनमे से एक सन्देश कुछ ज़्यादा ही भा गया और वो था " आंख के बदले आँख पूरे विश्व को अँधा कर देगी।" इस सन्देश के निहितार्थ को समझना क्या बहुत मुश्किल है? बिलकुल नहीं। हम सब जानते हैं कि बदले की भावना हमें उग्रता और हिंसा की ओर धकेलती है। और हिंसा का प्रत्युत्तर हिंसा से देने का मतलब है और अधिक हिंसा को बढ़ावा देना। हम सब इस सच को जानते हैं समझते हैं लेकिन फिर भी गाँधी को उनके इन विचारों के लिए कभी कायर तो कभी मजबूरी का नाम दे कर पल्ला झाड़ लेते हैं।
इस बात से शायद ही किसी को इंकार हो कि पिछले कुछ समय से हम एक उग्र हिंसक और असहिष्णु देश के रूप में परिवर्तित हो रहे हैं। ये उग्रता , बदला लेने की ये भावना पहले एक ख़ास देश के प्रति ही दिख रही थी धीरे धीरे किसी एक खास मजहब से होते हुए अब अपने आस पास हर किसी के प्रति दिखने लगी है। अब हमारी नफरत के निशाने पर यूं कहे कि अब इंसान ही इंसान का दुश्मन हुआ जा रहा है। हिंसा का ,उग्रता का ये स्थानीयकरण भयावह है। हम बहुत ज़्यादा प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं।

लेकिन पिछले कुछ समय से प्रेम की जगह नफरत ने ले ली है और आपसी सौहार्द की जगह हिंसा ने। इसी हिंसा के खिलाफ पिछले दिनों पूरे देश भर में प्रदर्शन हुए जिसे "नॉट इन माई नेम " का नाम दिया गया।
ये आंदोलन किसी व्यक्ति के किसी धर्म या मज़हब के खिलाफ नहीं था। ये उस मानसिकता के खिलाफ था जो लोगों को उग्र और हिंसक भीड़ में तब्दील कर रही है। वो भीड़ जो अपना विवेक और अपनी मानवता खो देती है सिर्फ किसी अफवाह , संदेह या क्रोध में आ कर हत्या करने से भी नहीं हिचकती। इस ऐतिहासिक प्रदर्शन की गवाह और हिस्सा बनी हमारी साथी रितिका शुक्ला। वहां से आ कर उन्होंने एक रिपोर्ट भी तैयार की थी जो किसी वजह से वो समय पर पब्लिश न कर सकीं। कई बार कुछ विषय समय पर प्रकाशित न हो तो अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। लेकिन इस विषय के साथ ऐसा नहीं है। मॉब लिचिंग की घटनाएं दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। सच तो ये है कि ये आग अब हमारे घरों तक पहुँच गई है। अगर अब भी हम इसके खिलाफ खड़े न हुए तो बहुत जल्द हमें बहुत बुरे दिन देखने पड़ेंगे।
मीडिया रिपोर्ट्स की समीक्षा करें तो पता चलता है कि मई 2014 के बाद से भीड़ या स्वयंभू संगठनों द्वारा मुसलमानों पर 32 हमले हुए हैं। इन हमलों में 23 लोगों की मौत हो गई, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। ये हमलों का एक सामान्य आंकलन है क्योंकि बहुत सारे मामले तो नैशनल मीडिया में कवर भी नहीं होते। इनमें से अधिकतर हमले गाय के मुद्दे से जुड़े हुए थे। मसलन-गोहत्या, गाय की तस्करी, बीफ खाने, बीफ रखने आदि के आरोप। झारखंड और पश्चिम बंगाल में कुछ मामलों में अफवाहों और 'बच्चे चुराने' के संदेह की वजह से भी भीड़ हिंसक हो उठी। वहीं, कुछ मामलों में गाय को मुद्दा बनाकर वीभत्स अपराधों को अंजाम दिया गया। जैसे-हरियाणा के मेवात में दो महिलाओं से गैंगरेप और उनके दो रिश्तेदारों की हत्या का केस। गाय से जुड़े इन अपराधों का दायरा 12 राज्यों में फैला हुआ है। चिंताजनक बात यह है कि इन अपराधों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। हिंसक घटनाओ के विरोध में पूरा देश एक साथ खड़ा हुआ है।
इस ऑनलाइन कैम्पेन की शुरुआत गुड़गांव में रहने वाली फिल्ममेकर सबा दीवान के फेसबुक पोस्ट से शुरू हुई थी , जिसे उन्होंने पिछले दिनों बल्लभगढ़ में हुई जुनैद खान (16) की हत्या के बाद लिखा था। फिल्ममेकर ने लोगों से कैम्पेन के सपोर्ट और 28 जून को अगल-अलग शहरों में मार्च में शामिल होने की अपील गयी । गौरतलब है कि ऐसे प्रोटेस्ट ही हमें जिंदा होने का अहसास कराते हैं..देश में भीड़ द्वारा अल्पसंख्यक एवं दलित समुदाय के खिलाफ हुई हिंसा की हालिया घटनाओं के खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी फिल्मी हस्तियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं सहित सैकड़ों की संख्या में नागरिकों ने प्रदर्शन किया। वही देश के अलग अलग हिस्सों में इस मुहिम को चलाया गया।
लखनऊ के जीपीओ पर गाँधी जी की प्रतिमा के सामने प्रोटेस्ट किया गया। जहाँ गैर सरकारी संस्थाए और मीडिया मौजूद थी। मै भी इस मुहीम में शामिल थी। किसी को यह हक़ नही कि गौ भक्ति के नाम पर की जा रही हत्याएँ कोई पूजा नहीं है। इंसान की जान ले लेना गाय की रक्षा के नाम पर ये कहाँ से न्यायसंगत है। ऐसे में जरूरत थी कि पूरा देश इस मुहिम में एक साथ खड़ा हो।

P.C - शुभांगी सिंह
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