औरत के दर्द को औरत की ज़ुबानी सुना जाये : डॉ सागर
उत्तर प्रदेश के बलिया शहर के एक छोटे से गाँव ककरी में जन्म लेने वाले डॉ सागर आज अपने गीतों से बॉलीवुड में एक ख़ास जगह बना चुके हैं। समकालीन गीतकारों से इतर इनके गीतों में लोकजीवन के तमाम रंग अपने सम्पूर्ण सौंदर्य के साथ नज़र आते हैं। इनके बिम्बों में मौलिकता है और प्रतीकों में नयापन । हाल ही में आई फिल्म अनारकली ऑफ़ आरा के एक गीत "मोरा पिया मतलब का यार " से चर्चा में आये डॉ सागर ने बी एच यू और जे एन यू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा प्राप्त की है। इन्होने त्रिलोचन शास्त्री के काव्य संग्रह "ताप के ताए हुए दिन " पर एम् फिल और "समकालीन हिंदी कविता में प्रतिरोध : स्त्री लेखन के विशेष सन्दर्भ में" पर अपनी पीएच डी की है। प्रस्तुत है डॉ सागर से हुई हमारी बातचीत के कुछ अंश :
सागर साहब जैसा कि आपने बताया कि आपने समकालीन हिंदी कविता में स्त्री प्रतिरोध के स्वर पर अपनी रिसर्च की है। तो कुछ उस विषय में बताएं कि ये विषय आपने कैसे और क्यों चुना ?
जब मैंने एम् फिल पास कर लिया और पीएच डी में एडमिशन लिया तो मेरे दिमाग में ये बात घूम रही थी कि अगर इतिहास को उठाया जाए तो पोएट्री में मीरा बाई से लेकर महादेवी वर्मा तक ये दो नही नाम दिखते हैं जिनमे कोई आंदोलन है। मेरा ये मानना था कि औरत के दर्द को औरत की ज़ुबानी सुना जाये। इसलिए मैंने स्त्री के प्रतिरोध के स्वर को अपने रिसर्च का विषय बनाया। मैंने किसी पुरुष कवि को नहीं रखा हैं अपने रिसर्च वर्क में। अपने रिसर्च के दौरान मैंने पाया कि हिंदी कविता में जो नई खेप है साहित्यकारों की , खास कर महिला साहित्यकारों की ,वो बहुत अच्छा लिख रहे हैं।
आपने अपने रिसर्च में जिन महिला रचनाकारों का उल्लेख किया है , संक्षेप में कुछ बताइये उनके बारे में।
इनमे से अधिकांश अकेडमिक बैकग्राउंड से आती हैं। ये सभी अच्छी पढाई कर के स्टैब्लिश हुई हैं चाहे वो कात्यायनी ,निर्मला गर्ग , कविता सिंह हों या अनामिका जी हों। इनमे से कोई अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं कोई पोलिटिकल साइंस की। सब पढाई लिखाई वाले बैकग्राउंड से आये हैं और उन्हें अपने घर का भी संस्कार मिला है। यू पी , बिहार की ज़मीन का संस्कार मिला हुआ है। उस मिट्टी की पहचान और खुश्बू है। दोनों को इन लोगो ने बहुत अच्छे से आत्मसात किया है, बहुत खूबसूरती से मिलाया है।
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अनामिका |
आप अब फिल्मों में गीत लिख रहे हैं। तो फिल्मों में स्त्री प्रतिरोध के स्वर को कैसे देखते हैं?
देखिये , शुरूआती दौर में जो फ़िल्में बनी हैं उसमे बहुत सारे लोगो ने इन मसलो को उठाया हैं। उस तरह की जो धार है। चाहे वो साहिर का गीत औरत ने जन्म दिया मर्दो को , मर्दो ने उसे बाज़ार दिया या फिर पोंछ कर अश्क़ अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने। मसले जो उठाये गए हैं पुरानी फिल्मों में , उनमें औरत के दर्द को आवाज़ देने की कोशिश की गयी हैं। मगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज हिंदी फिल्मों में स्त्री प्रतिरोध का स्वर नदारद है। औरत की परेशानी को, सामाजिक रूप से पिछड़े और हाशिये के लोगो को केंद्र में रखकर गीत नहीं बन रहे हैं और इन विषयो पर फिल्में में भी नहीं बन रहीं। फिल्मों का पूरा स्ट्रक्चर बदला हुआ है। अब फिल्मों में ये स्वर बिल्कुल सुनाई नहीं देता। पुरानी फिल्मों को आप देखें तो उनमें बड़ी बड़ी समस्याओं को उठाया गया हैं उनमें सिचुएशन निकाली जाती थी अपनी बात कहने की। जिन्हें नाज़ हैं हिंद पे, वो कहां हैं , या फिर प्यासा के गीत देखें आप। अब ना उस तरह की स्क्रिप्ट बनती है और न वैसे गाने बनते हैं। वो फिल्में आज के हिसाब से बहुत प्रोग्रेसिव थीं। चाहे वो गुरु दत्त की हो, या बी आर चोपड़ा की। गाने भी देखिये उस वक्त कि साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जायेगा, मिल के बोझ उठाना। तो ये एक तरह का अपने आप में पूरा आंदोलन है कि दौर कैसे बदल रहा और इस बदलाव से लोगों की ज़िंदगी पर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है।
इस लिहाज से आप किस गीतकार को महत्वपूर्ण मानते हैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जिन्होंने औरत के दर्द को समझा और उसे स्वर दिया ?
हिन्दी फिल्मों में औरते तो गीतकार रही नहीं हैं। औरतों के दर्द को सिर्फ मर्दो ने ही गाया है। इन गीतकारों में भी मैं साहिर साहब को सबसे ऊपर रखता हूँ। मैं साहिर साहब का बहुत बड़ा फैन हूँ। मैंने तो अपनी पीएच डी
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साहिर लुधियानवी |
क्या वजह है कि अब नया दौर , प्यासा जैसी फिल्में नहीं बनती और न वैसे गीत सुनाई देते हैं?
फिल्मों से अब हर चीज बाज़ार के हिसाब से चलती हैं। मल्टी प्लेक्सेस में सिनेमा चला आया हैं। अब सब कुछ यूथ को ध्यान में रख कर बनाई जाती है। आज की युवा पीढ़ी के पास इतना वक़्त कहाँ कि वो सामाजिक समस्याओं के बारे में सोचे। उसके लिए तो फ़िल्में मनोरंजन और टाइम पास का जरिया हैं। तो उसी तरह की कुछ चीजें निकल पड़ती हैं और वैसा ही ट्रेन्ड बन जाता हैं। अब आप खुद देखिये कि अनारकली ऑफ आर जैसी फिल्मों का कितना कलेक्शन हो रहा हैं। कहाँ जा रही हैं ये फिल्में। इन फिल्मों को देखिये और बाहुबली जैसी फिल्मों को देखिये। कितना फर्क हैं दोनों के कलेक्शन में। यहाँ पर इतनी मुश्किलें खड़ी हो रही हैं कि लगाए गये पैसे भी निकालना मुश्किल हो जाता है ।
आपको अनारकली ऑफ़ आरा कैसे मिली?
पहले लोग नहीं जानते थे कि मैं फिल्मों में गाने लिखता हूं । मैं तो काफी पहले से भोजपुरी फिल्मों में गाने लिखता रहा हूँ। और हिंदी में भी कई फिल्मो में लिख चुका था। लेकिन लोगों को जानकारी नहीं थी। सच तो ये है की मुझे वास्तविक पहचान अनारकली ऑफ़ आरा के एक गीत से मिली। पीएच डी के दौरान ही मैं भोजपुरी फिल्मों में गाने लिखने लगा था। मुंबई आने से पहले सारे बड़े सिंगर्स मेरे लिखे गाने गा चुके थे। मुझे वहाँ काफी
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पूरा गाना सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। https://youtu.be/8rlNjyoiNdo |
लेकिन वो गाना है कमाल का। अच्छा ये बताइये कि ये कोई लोक गीत है या ये बिलकुल आपका अपना है ? साथ ही अपनी कविता यात्रा के बारे में भी कुछ बताइये।
जी , ये गीत बिल्कुल मेरा अपना हैं। मैं भोजपुरी गाने ,बिरहा लिखता था। अपने गाँव बलिया में दूसरी क्लास से मैं कविता लिखने लगा। मुझे मेरी कविता पर सम्मान भी मिला था। सातवीं क्लास तक मेरे लिखे गीत रेडियो स्टेशन से गाये गए। और मेरी स्कूल की फीस माफ़ हो गयी। स्कूल में प्रिंसिपल मैनेजर सभी मानते थे ख़ास कर अग्रेज़ी के टीचर सत्यदेव पांडे जी। स्कूल में जितने भी गीत गाये जाते थे, वो भी जो लड़कियां 26 जनवरी 15 अगस्त या किसी भी कल्चरल प्रोग्राम में गाती थीं , वो सब मेरे लिखे गीत होते थे। सभी मुझसे गीत लिखाना चाहते थे। मिडिल स्कूल में जो पचासो गीत गाये जाते थे, न सिर्फ मेरे स्कूल में बल्कि आस पास के स्कूलों में वो सब मेरे लिखे हुए होते थे। दूसरे स्कूल के टीचर आते थे मेरे गांव मुझ से मिलने। सिंगर्स आते थे मुझसे गीत लिखाने।
आपके घर में भी कोई लिखता पढता है ? कुछ फॅमिली बैकग्राउंड बताइये।
अपने घर में मै अकेला पढ़ने लिखने वाला निकला हूं । और कोई भी इस फील्ड में नहीं हैं। मेरे घर पे तो किसी ने मेरे गीत सुने ही नहीं होंगे। मेरा बचपन का टारगेट था कि मुझे नौकरी नहीं करनी हैं। लेकिन पीएच डी करनी हैं। बॉलीवुड में शुरु से जाना चाहता था। और अपना बैकग्रॉउंड मज़बूत करना चाहता था। मैं अपनी फैमिली का अकेला कमाने वाला हूँ । .और मेरे जितने भाई, भौजाई ,भतीजे भतीजियां हैं। सब का खर्चा अकेले मै ही चलाता हूं। अब तो गाँव में मैंने अपना घर भी बनवा लिया है। पहले हमारे पास घर भी नहीं था। मैं ये चाहता था कि मेरा घर मेरे गीतों से बने। अब जा कर मेरा ये सपना पूरा हो गया है।
कविता में भी क्या कोई गुरु रहे हैं , या कोई ऐसा जिससे आपको प्रेरणा मिली हो आपके ?
जी कविता में श्री अशोक द्धिवेदी मेरे गुरु रहे हैं। एक पत्रिका थी "पाती ", ये बलिया से निकलती थी। वो उसके संपादक थे। मैं उसको पढ़ कर उसमे दिए हुए एड्रेस पर उनसे मिलने गया , ऐसे हमारी मुलाक़ात हुई। उन्होंने मेरी कविता लेखन की प्रतिभा को परिमार्जित और परिष्कृत किया।
सागर जी मौजूदा दौर में हिंदी फिल्मों में गीतों को सुने तो शाब्दिक ही नहीं व्याकरण की भी बहुत सी गड़बड़ियां पकड़ में आती हैं। ज़ाहिर है बहुत से प्रोडूयसर डायरेक्टर के लिए ये गड़बड़ियां ज़्यादा मायने नहीं रखतीं। ऐसे में एक कवि या साहित्य के अध्येता के रूप में आप कैसे ताल मेल बिठाते हैं ?
हाँ , आप बिलकुल ठीक कह रही हैं। ऐसा होता है कि गीतकार लिखता है कुछ और गायक उस शब्द और उसके भाव को बिना समझे उसे गा देते हैं। कई बार इस तरह की लापरवाही से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। एक बार मेरे एक गीत को गाते वक्त सिंगर ने कुछ शाब्दिक गड़बड़िया कर दी थी। मैंने गीत को सुना तो मुझसे बर्दाश्त नहीं
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अमिताभ भट्टाचार्य |
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आपको किस तरह का रिस्पांस मिल रहा है ?
बहुत अच्छा। मुझे बहुत काम मिल रहा है। अभी मै सुधीर मिश्रा की एक फिल्म कर रहा हूं । इरफान खान ने मेरे एक गाने के लिरिक्स सुन कर मुझे मिलने के लिए बुलाया । यहाँ चाहने वाले बहुत ज्यादा है। सिर्फ ईमानदारी से काम करने की जरुरत हैं। आजकल फिल्म बहुत ज्यादा बन रही हैं। हर हफ्ते छे सात फिल्मे रिलीज़ हो रही हैं। हमें तो सिलेक्टेड और अच्छा काम करना हैं। इतना ही बहुत है सर्वाइवल के लिए। वैसे भी यहाँ बहुत मंझे हुए लोग हैं। जो हमारे गाने का एक एक शब्द सुनते हैं।
बलिया एक छोटे से गाँव से बी एच यू और फिर बी एच यू से जे एन यू। ये जो आपका पूरा सफर रहा है , उसके बारे में कुछ बताइये।
देखिये ,आज मैं जो कुछ हूँ उसमे मेरे सभी दोस्तों का मेरे प्रोफेसरों का चाहे वो बी एच यू के हों या जे एन यू के, सबका बहुत योगदान है। जहाँ तक मेरे सफर की बात है तो पढ़ने में शुरू से अच्छा था। लगन भी थी तो बी एच यू तो जैसे तैसे पहुँच गया। लेकिन वहां से फिर जे एन यू तक पहुँचने में एक मित्र हैं बी एच यू के, उनको पूरा क्रेडिट जाता है। उन्होंने ने मेरी बहुत मदद की। उनसे मेरी मुलाक़ात भी बड़ी रोचक है। एक दिन मै बी एच् यू के होस्टल के रूम में कविताये सुना रहा था। हमेशा की तरह मेरे सारे मित्र बड़े चाव से मेरी कवितायेँ सुन रहे थे। वैसे भी वहाँ अक्सर लोग इकठ्ठे हो जाते थे मेरी कवितायेँ सुनने के लिए । मेरी पचांसो भोजपुरी कवितायेँ मुझे जबानी याद थी। दोस्त फरमाइश करते रहते थे कि वो वाली सुनाओ , वो वाली सुनाओ। तो ऐसे ही एक दिन मैं सुना रहा था तो अजय कुमार उधर से निकल रहे थे उन्होंने सुनी तो रुक गए, रूम में आ गए। कहने लगे की कितनी अच्छी कवितायेँ लिखते हो यार। वो लॉ की पढाई कर रहे थे उस समय।
उन्होंने कहा कि कभी मेरे रूम पे भी आओ। वो मुझसे काफी सीनियर थे पर हम दोनों दोस्त की तरह हो गए। उन्होंने मुझे कह रखा था कि जो भी ज़रूरत पड़े मुझे बता देना। उन्होंने मेरे बारे में काफी कुछ जाना फिर कहा कि तुम्हे तो जे एन यू पढ़ना चाहिए। मैंने कहा कि मुझे तो पता नहीं और खर्चा भी बहुत होता होगा। उन्होंने बताया कि खर्चा कुछ ख़ास नहीं होता। फिर वो ही जे एन यू का फॉर्म ले आये , खुद ही भर दिया और साईकिल पे बिठा के एग्जाम दिलाने ले गए। मैं पास हो गया और इस तरह से जे एन यू पहुँच गया। फिर वो जज हो गए लेकिन उसमे उनका मन नहीं लगा तो छोड़ दिए। फिर बी एच यू में असिस्टेंट रजिस्ट्रार हो गए। अभी वो वहीं पर हैं। जीवन में इस तरह के दोस्तों से जो मुलाक़ात हुई उसका बहुत मूल्य है।
अच्छा जे एन यू जुडी कोई ख़ास याद , कोई विशेष उपलब्धि ?
वैसे तो बहुत सी यादें हैं। मुझे बहुत प्यार और सम्मान मिला वहां। लेकिन एक घटना मैं कभी नहीं भूलूंगा। दरअसल एक बार मुझे जे एन यू के ट्रिपल एस ऑडिटोरियम में कविता सुनाने के लिए चुना गया। ख़ास बात ये थी कि जे एन यू से अकेले मुझे सेलेक्ट किया गया था। जब मैं ट्रिपल एस ऑडिटोरियम में कविता सुनाने पहुंचा तो पता चला कि वहां तो बहुत बहुत बड़े बड़े कवि थे। केदारनाथ सिंह से ले कर मंगलेश डबराल , कुमार विमल,अनामिका सब मौजूद थे। जब मुझे बताया गया कि जे एन यू से सिर्फ तुम सेलेक्ट हुए हो तो मैंने कहा की सर मैं तो मंच पर नहीं बैठ सकता इन सब के साथ। मेरी हिम्मत ही नहीं थी कि मैं केदार नाथ सिंह के साथ बैठूं मंच पर। मैंने कहा सर प्लीज मुझे ऑडिटोरियम में नीचे बैठे रहने दीजिये, मेरा नाम अनाउन्स कर
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केदारनाथ सिंह |
लोगों ने मुझे खूब सराहा। मेरे बाद जो भी कवि आये सबने यही कहा कि सागर ने ऐसी कविता पढ़ दी है कि इसके हम क्या पढ़ें। मेरे लिए ये बहुत बड़ा कॉम्पलिमेंट था। अनामिका जी तो अपनी मम्मी को ले आई थी मेरी वो कविता सुनाने। केदार नाथ सिंह उस समय हिन्दुस्तान में एक आर्टिकल लिखते थे। दूसरे दिन सुबह उन्होंने एक लेख लिखा शहरों में जीवन की लय शीर्षक से। उसमे उन्होंने बिना मेरे नाम का ज़िक्र किये हुए लिखा कि मैंने इस तरह किसी कवि को कविता सुनते हुए और ऑडियंस को कविता सुनते हुए नहीं देखा। इसके बाद तो पूरे जे एन यू में मेरा तो रुतबा बन गया। सारे प्रोफेसरों ने बधाई दी सारे दोस्तों ने पीठ थपथपाई। एक बार मैंने केदारनाथ सिंह जी को फ़ोन किया था तो वो बड़े खुश हो गए। बोले क्या करना चाहते हो ? मैंने कहा सर फिल्मों में जाना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि जहाँ भी रहोगे अच्छा करोगे। तो ये मेरे लिए बहुत यादगार घटना है।
जे एन यू के बारे में आज समाज में जिस तरह की धारणा है, उसके बारे में कुछ कहना चाहेंगे ?
जी , दुःख होता है देख कर। सच तो ये है कि जे एन यू बहुत खूबसूरत जगह है जहाँ अपने विचारों को रखने की हमें आज़ादी मिलती है। भारत में कोई ऐसी दूसरी जगह नहीं है जहाँ अपनी बात रखने की इतनी आज़ादी मिलती हो खासतौर पर लड़कियों के लिए तो कोई ऐसी जगह नहीं है। यहाँ उन्हें खुल कर ज़िंदगी जीने की
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जे एन यू |
धन्यवाद सागर जी , और अब चलते चलते हमें अपनी कोई कविता सुनाइए।
जी , ज़रूर। ये कविता जे एन यू में बहुत पसंद की जाती थी।
हम पूछिलां कौना कारन
फूटल किरिन भइल बिहान ।। काहें सुगवा सुगिया के दउरे ठोरवा के छूवे ख़ातिर काहें बेकल महुवा बाटे भोरहीं में चूवे ख़ातिर ।। काहें लैला मजनूँ बन के दे देला दोसरा पर जान । हम पूछिलां कौना कारन फूटल किरिन भइल बिहान ।। 2 काहें गोल धरतिया डोले काहें भौंरा गुनगुन बोले खोंतवा से चिरई के बचवा काहें चूं चूं मुंहवा खोले काहें सागर कविता लिखे जेकर थोरहीं बुद्धि गियान । हम पूछिलां कौना कारन फूटल किरिन भइल बिहान ।।
प्रस्तुति :पूजा
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