बच्चे है, इन्हें बच्चा ही रहने दो.....
सुप्रिया श्रीवास्तव

हाथों से
मिटती लकीरें
सुबह घर से निकलते हुये नज़र उन नन्हें हाथों
पर जा पड़ी जो हमारे घरों से निकलने वाला कूड़ा बीन रहे थे। ये दृश्य लगभग रोज़ ही
देखने को मिल जाता है। एक दिन उससे पूछा कि तुम स्कूल नहीं जाती हो! तो जवाब मिला
जब असम में रहती थी तब पढ़ती थी। लेकिन जब से यहां आये है। स्कूल नही जा पायी हूं।
मैंने पूछा क्यों? तो बोली अभी
पापा के पास पैसा नहीं है। मैंने कहा कि रविवार को मेरे पास आ जाया करो, मैं पढ़ा दूंगी। उसकी मां भी साथ में थी, वो उसको
लेकर आगे बढ़ गई। लेकिन मेरे मन में कई सवाल छोड़ गये। जहां बालिकाओं की शिक्षा
निःशुल्क होने के बात है। कस्तूरबा बालिका विद्यालय और शिक्षा को बढ़ावा देने के
लिये कई योजनाएं बन रही। वहीं सच्चाई इससे अलग आंखों के सामने है। यह एक बच्ची की
बात नही है। ट्रैफिक सिग्नल हो, या बस अड्डे हर जगह नन्हें
हाथ भीख मांगते मिल जायेंगें। छोटे होटल, बड़े होटल सब जगह
बच्चों से श्रम लिया जा रहा है। कहीं वो हमारी नज़रों के सामने काम करते दिख जाते
है, तो कहीं नज़र से दूर रहकर काम करते है।
रोज़गार की
लालच
गरीबी
एक ऐसा कारण है, जो बाल श्रम को बढ़ावा
देता है। परिवार का पेट पालने के लिये नन्हें बच्चों को घरों मे काम करना पड़ता है।
और ये बच्चे देश के हर कोनों के अलावा आस पास के देशों से भी मंगाये जाते है।
बच्चों को अलग-अलग जगहों पर काम दिलाने के लिये बकायदा कई एजेंसियां काम कर रही
है। छोटे शहरों और गांव से बच्चों को रोज़गार का लालच दिला कर लाया जाता है। फिर
उन्हें बड़े शहरों में श्रमिक बना दिया जाता है। घरों में काम करने से लेकर उनका
शारीरिक और मानसिक शोषण तक किया जाता है। रोज़गार की आंड़ में बच्चों की तस्करी और अंगों
का सौदा तक होता है।
उम्मीद जगाते कुछ प्रयास
देशभर में कई संस्थान है जो बाल
श्रम के खिलाफ आवाज़ उठा रही है। उनके निरंतर प्रयास से बाल मजदूरी और बाल शोषण के
लिये लोगों मे जागरुकता आयी है। बचपन को मरने से बचाने के लिये नोबेल शांति पुरस्कार
विजेता और बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी ने अकेले दम पर आवाज़
उठायी थी। इसमें उन्हें अनेक मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा, लेकिन उन्होनें हार नहीं
मानी। जान तक पर खतरा मोल लेकर उन्होनें कई बच्चों को बाल मजदूरी से मुक्त कराकर
उनके परिवार से मिलाया है। 37 सालों के प्रयास से आज लगभग 86,000 बच्चों को बाल एवं
बंधुआ मजदूरी से छुड़ाया है। साथ ही उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिये आर्थिक, शैक्षणिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक
स्थिरता दिलाने का काम कर रहे है। वो बताते है कि देश में ही नहीं बल्कि विश्व के
हर कोने में बच्चों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हो रहा है। एक किस्सा बताते हुये
उन्होनें कहा कि किसी देश में वो गये थे। जहां चॉकलेट की फैक्ट्री में कुछ बच्चें
काम कर रहे थे। उन्होनें उनसें पूछा कि चॉकलेट पसंद है! इस पर बच्चे ऐसे देखने लगे
जैसे ये शब्द उनके लिये नया हो। उन्होनें जवाब दिया कि उन्होनें तो इसका नाम भी
पहले नही सुना खाना तो दूर की बात है। इस बात को सुनकर मानो यकीन नहीं हुआ कि जो
नन्हें बच्चें जिनकी चॉकलेट पसंदीदा चीज़ों में से एक है। जिसे खाकर वो खुश हो जाते
है। वहीं उसे बनाने वाले नन्हें हाथ इसका स्वाद तक नहीं जानते। बहुत ही दुखद...
इसे लेकर उन्होनें पूरे विश्व को बाल श्रम से मुक्ति दिलाने के लिये एक कैम्पैन
शुरु किया है- “100 मिलियन फॉर 100 मिलियन”। इस कैम्पैन से जुड़कर बच्चों को हिंसा, भुखमरी, उपेक्षा
और शोषण के शिकार से मुक्त कराने का प्रयास जारी है। आशावादी सोच के साथ हर
व्यक्ति को प्रयास करना होगा। भीख मांगने, कचरा बीनने वाले
बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिये दुआएं फॉउंडेशन के संस्थापक आशीष शर्मा
दिल्ली में 14 जून से “वन गो, वन इम्पैट” नाम से जागरुकता अभियान
चलाने जा रहे है।
हर साल आंकड़े पेश होते है। उनपर चर्चा
होती है। उम्मीद जगायी जाती है कि बाल श्रम रोका जाये। लेकिन इसके खिलाफ उठाये गये
कानूनी प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा जैसे लग रहे है। सबकी नज़रों के सामने बाल
मजदूरी और शोषण होता रहता है। लेकिन आवाज़ उठाने की हिम्मत कोई नही जुटा पाता। बाल
श्रम के खिलाफ हमें या आपको नहीं,बल्कि हम
सबको साथ में मिलकर काम करना चाहिये। किसी एक के प्रयास की सरहना करने से अच्छा है, उस प्रयास में सहयोग दे सकें। केवल बाल श्रम निषेध दिवस पर अपना मत रखना
और एक दिन जमकर बातें करने से आंकड़ों में परिवर्तन नहीं सम्भव है। क्यों ना इसके
लिये हम सभी संकल्प लें। फिर चाहे ये प्रयास छोटा ही क्यों न हो लेकिन अपने और
अपने आस-पास तो ऐसे अपराधों को रोका जा ही सकता है।
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