आरक्षण : दुर्भाग्यपूर्ण लोगों के लिए एक छोटा सा हर्जाना: -नृपेंद्र बाल्मीकि


देव संस्कृति विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढाई पूरी कर नृपेन्द्र बाल्मीकि आज हैदराबाद में वेब पोर्टल इंडी लिंक्स डाट कॉम मे मुख्य कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत है। शुरु से ही वह सामाजिक मुद्दो और वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर अपनी बातो को लोगो के सामने पहुंचाने का काम करते आये है। दैनिक जागरण और ईटीवी उत्तराखंड मे इंटर्नशिप से प्राप्त अनुभवो को पत्रकारिता के क्षेत्र मे लगा रहे है। वह नयी पीढी के लेखक के साथ ही अच्छे कवि भी है। आइये पढ़ते हैं आरक्षण पर उनका ये आलेख।    


आज़ादी के 70 साल बाद भी राष्ट्रहित के लिए उठाए गए कुछ अहम मुद्दे आज भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में रेंगते नजर आते हैं।  भारत में आरक्षण भी उन्हीं  रेंगते मुद्दों में से एक है, जो लंबे समय से एक विवादित शक्ल के रूप में किसी पत्थर पर काई समान जमा पड़ा है। दलितों, अल्पसंख्यकों के लिए जहां आरक्षण आशा की किरण प्रतित हुआ तो वहीं स्वर्णों के लिए एक घाव। समाज के निचले, शोषित वर्गों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए बनाई गई व्यवस्था, आज आग की लपटों में दिन बसर कर रही है। आलम यह है कि आरक्षण को समाज का उच्च वर्ग योग्यता हनन का षड्यंत्र मानता है। मण्डल आयोग (सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान कराने हेतु 1979 में गठित आयोग) के अध्यक्ष वी.पी मण्डल ने कहा था कि “यह सच है कि आरक्षण से कुछ लोगों का दिल जलेगा, मगर क्या महज दिल जलने को सामाजिक सुधार के खिलाफ एक नैतिक निषेधाधिकार माना जाए?  
विदित है कि आज जो ये आरक्षण जैसे मुद्दे दिमाग पर कुठारघात करते नजर आ रहे हैं, ये आसमान से नहीं टपके, इनका कहीं न कहीं संबंध भारतीय इतिहास से रहा है। परंपरागत वर्ण व्यवस्था में इसके बीज आसानी से खोजे जा सकते
हैं, जहां ब्राह्यण, क्षत्रीय वैश्य-शूद्र सभी के कर्म निर्धारित कर दिए गए थे।  यही कारण था कि महाभारत काल में गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य को इसलिए धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया, क्योंकि एकलव्य शूद्र था। जब द्रोणाचार्य को यह आभास हुआ कि एकलव्य अजुर्न से भी बड़ा धनुर्धारी है तो उन्होंने गुरूदक्षिणा की आड़ में एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया।


आवाज को दबाया गया 

 देखा जाए तो वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था ने  समाज के निचले वर्ग को हमेशा से ही शिक्षा व परंपरागत ज्ञान से वंचित रखा है। कर्म के आधार पर उनके साथ बदसलूकी की गई, हीन भावना से देखा गया। शारीरिक श्रम ले लेकर उन्हें मरने पर विवश किया गया। यहां
तक की कई मामले दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के भी सामने आते रहे । पर ये मुद्दे सिर्फ और सिर्फ दबते ही आएं हैं, समाज के प्रभुत्व वर्ग ने हमेशा दलितों को डरा धमका के रखने के कोशिश की, जिस कारण उनकी आवाज हमेशा से दबती रही ।  समाज में ऊंच-नीच का माहौल इस कदर व्याप्त था कि दलित स्वतंत्रता सेनानियों को इतिहास के पन्नों में लिपिबद्ध तक नहीं किया गया। खानापूर्ति के लिए कुछ एक नाम सहायक तौर पर जोड़ दिए गए। जिन आदिवासियों को समाज का तथाकथित शिक्षित वर्ग किसी काबिल नहीं समझता उनके नेता सिद्धू-कान्हू ने अंग्रेजो के पसीने छुड़ा दिए थे। ये आदिवासी वे लोग थे जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी भरी जिंदगी को ठोकर मार सम्मान से लड़कर मरना पसंद किया । तिलक मांझी, उदईया, मातादीन, चेतराम जाटव, वीरंगना झलकारी बाई, ये कुछ ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों के नाम हैं जिन्हें शायद आज का आधुनिक समाज ठीक से जानता हो । समकालिन इतिहासकारों ने इनके नामों को गुमनाम रखने की अपनी चाटूकार भूमिका अच्छे से निभाई । तथ्यों से छेड़छाड़ कर अपने तरीके से इतिहास को पेश किया। ये इतिहासकार दलितों के योगदान को नंजरअंदाज कर समाज के शक्तिशाली वर्गों की ही वीरगाथाएं लिखते रहे । 
यहां तक की संविधान सभा के गठन के बाद जब बात सरकार बनाने की आई तो नहरू ने अपने कैबिनेट की  प्रारंभिक लिस्ट में  बी.आर अम्बेडकर का नाम तक नही रखा । जिस वक्त नेहरू सरदार पटेल के साथ महात्मा गांधी के पास सलाह-मशविरा करने पहुंचे, तब महात्मा गांधी ने सिर्फ यही बात कही कि अम्बेडकर को कैबिनेट में शामिल न करके आप अपने साथ-साथ देश का नुकसान कर रहे हो। अम्बेडकर जैसा संविधान व कानून का ज्ञाता इस पूरे हिंदुस्तान में नहीं है, उसके ज्ञान व अनुभव का इस्तेमाल न करना सबसे बड़ी भूल होगी। ये सारी बातें बताती हैं कि किस तरह भारतीय समाज में जाति आधारित अराजकता फैली हुई थी।
   
आरक्षण के नाम पर राजनीति 

आज़ादी के बाद नीति निर्धारकों को यह महसूस हुआ कि अगर भारत को संपूर्ण रूप से विकास के पथ ले जाना है तो समाज के दबे कुचले लोगों को मुख्यधारा में लाना होगा। 1950 में भारतीय संविधान ने दुनिया के सबसे पुराने और सबसे व्यापक आरक्षण कार्यक्रम की नींव रखी । जिसमें अनुसूचित जन जातियों और अनुसूचित जातियों को शिक्षा, सरकारी नौकरियां, संसद और विधानसभाओं में न केवल
आरक्षण दिया गया बल्कि समान अवसरों की गारंटी भी दी गई। यह उन दुर्भाग्यपूर्ण लोगों के लिए एक छोटा सा हर्जाना था जिन्होंने समाज द्वारा दिए गए अपमान, मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना को हर रोज़ बर्दास्त किया ।  साल 1989 में आरक्षण पर तब रजनीति तेज हो गई जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC) को भी आरक्षण देने का फैसला किया । स्थिति इस हद तक आ गई कि जातियों में खुद को पिछड़ा घोषित करने की हास्यपद होड़ लग गई। सामाजिक व आर्थिक रूप से संपन्न जातियां भी आरक्षण को मक्खन समझ इसे पाने की भरकस कोशिश में लग गईं। आज जाति व्यवस्था वोट बैंकिग का सबसे बड़ा स्त्रोत बनकर उभरी है। जातिगत प्रभाव इस कदर छाया कि भारतीय राजनीति जातिगत राजनीति में तब्दील होकर रह गई। आज हर नेता के पास जातिगत व धार्मिक आधार पर अपना अलग वोट बैंक है।   


आरक्षण पर दिए गए तर्क 

आरक्षण को लेकर कुछ लोगों का तर्क है कि आरक्षण को जाति आधारित नहीं बल्कि इसे आर्थिक तौर पर लागू कर देना चाहिए, जिससे कुछ जातियों की बजाय सभी जातियों के पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ मिले। कुछ लोग यह भी तर्क रखते हैं कि आरक्षण एक जहर है जिसे पूर्ण रूप से समाप्त कर देने में ही भलाई है।  पहले तर्क पर अगर सोचा भी जाए तो यह संविधान के खिलाफ होगा, क्योंकि संविधान में  “पिछड़े हुए नागरिक का वर्ग” नाम के किसी भी पद की परिभाषा नहीं दी गई है। 1992 में इंद्रा बनाम भारत संध केस में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को सामने रखा था कि भारत के संदर्भ में निचली जातियां को पिछड़ा माना जा सकता है। जाति अपने आप में ही पिछड़ा वर्ग हो सकती है।  भारतीय परिप्रेक्ष्य में आरक्षण सामाजिक दशा सुधारने का उपाय है न कि आर्थिक। गरीबी हटाने के लिए कई गरीबी उन्मूलन योजनाए ईमानदारी से चलाई जा सकती हैं।


दूसरे तर्क पर विचार करें कि आरक्षण को पूर्ण रूप से खत्म कर दिया जाए तो इसके लिए नीति निर्धारकों को आरक्षण का सफल विकल्प तलाशना होगा।  यह एक ऐसा जोखिम भी साबित हो सकता है जो देश को कई वर्ष पीछे धकेल सकता है, क्योंकि भले ही समाज शैक्षणिक स्तर पर आगे बढ़ रहा हो पर मानसिक स्तर आज भी वर्ण आधारित ही है। अगर आरक्षण गलत है तो इसके पीछे का कारण जातिगत, कर्म आधारित भेदभाव ही है। अगर सच में इसे खत्म करना है तो समाज को जातिगत ऊंच-नीच से उपर उठना होगा। समाज द्वारा बनाए गए जातिगत खांचे को तोड़ना होगा।  असमानता को दूर करना मानसिक व व्यक्तिगत प्रयास है इसे स्वीकारना होगा। क्योंकि जबतक इंसान मानसिक जकड़न से मुक्त नहीं होगा आरक्षण जैसे मुद्दे आगे आते रहेंगे, और अपने हावी होने का एहसास दिलाते रहेंगे।
                                  प्रस्तुति : पूजा    



                                                             

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