हो गई है पीर पर्वत सी......
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मुझे नहीं पता की दुष्यंत कुमार ने ये पंक्तियाँ किस सन्दर्भ में लिखी थी लेकिन आज जो परिस्थितियां हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा की आज हमारी पीर वाकई पर्वत सी हो गई है और अब इसका पिघलना बेहद ज़रूरी है। आज ये पीर बहुत गहराई से उठी है। एक औरत जो सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही थी , आज तेज़ाब पी कर अस्पताल के एक बिस्तर पर पड़ी है। ये पीर तब भी उठी थी जब दिल्ली में एक लड़की के साथ भयावह तरीके से गैंगरेप हुआ था। ये पीर लगभग रोज़ उठती है। आप अखबार उठा कर देखिये शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब औरतों से जुड़े किसी अपराध की खबर न हो। लेकिन हम भुल्लकड़ लोग , कहाँ याद रख पाते हैं देर तक इन खबरों को। कितनी अजीब सी बात हैं न की जिस खबर को पढ़ कर सुबह तक हमारा खून ख़ौल रहा था शाम तक वही खबर बेमानी हो जाती है।
शायद इसलिए की हमें और भी बहुत से काम करने होते हैं। किसी को ऑफिस जाना होता है , किसी को घर ,बच्चे सँभालने होते हैं। इसके साथ ही और भी बहुत कुछ करना होता है। कहीं किसी के साथ बैठ कर चुगली करनी होती है ,किसी को न्यूज़ चैनल्स की बक बक सुन कर बौद्धिक जुगाली करनी होती है, किसी को अपना फेवरेट सीरियल देखना होता है। सच में बहुत से काम होते हैं। और फिर हर आदमी समाज सेवी तो नहीं बन सकता जो अपनी व्यक्तिगत जीवन की अनदेखी कर दूसरों के लिए भागता फिरे। बात एकबारगी बेहद तार्किक लगती है लेकिन क्या जिस समाज में हम रहते हैं ,जिससे हम मान सम्मान पैसा परिवार सुख शांति पाते हैं उसके प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं ? अपने लिए एक अच्छा घर एक सुखी परिवार और सुरक्षित भविष्य से इतर क्या कुछ भी नहीं ? क्यों हर बार बार शासन और प्रशासन का मुंह ताकते हैं ? क्या हमारी असंवेदनशीलता ज़िम्मेदार नहीं समाज में बढ़ते अपराध के लिए ?
हम जिन अपराधी तत्वों से डरते हैं उनकी हौसलाअफ़ज़ाई कौन करता है ? क्या हमारा डर हमारी सुविधा भोगी प्रवृति नहीं ? सब कुछ पुलिस और प्रशासन तो नहीं ठीक कर सकता।कुछ ज़िम्मेदारी तो हमारी भी है। लेकिन हमें तो भाई आदत है सुख सुविधा से लैस अपने घर में बैठ कर देश और दुनिया की राजनीती पर मीन मेख करने की। कुछ बुरा हो जाये तो च.... च... च करने की। हमारी इसी छद्म संवेदनशीलता का नतीजा है की देश में रोज़ न जाने कितनी निर्भया गैंगरेप का शिकार बन रही हैं और न जाने कितनी अभया रोज़ तेज़ाब से नहलाई जा रही हैं। ये लड़कियां जिस दर्द से गुज़रती हैं क्या उसे कोई सरकारी मुआवज़ा कम कर सकता हैं? कभी नहीं। उनके दर्द को हमारी दया हमारी सहानुभूति भी कम नहीं कर सकती है। अगर हमें वाकई इन घटनाओ से दुःख होता है चोट पहुँचती है तो हमें हर हाल में इनके खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए।
और इसकी शुरुआत अपने घर से करनी होगी । अपने बेटों, भाइयों को इस बात का अहसास दिलाना होगा की पुरुषत्व किसी स्त्री का बलात्कार करने में या उसके ऊपर तेज़ाब फेंकने में नहीं है। उन्हें बताना होगा की स्त्री सिर्फ तुम्हारे भोग की वस्तु नहीं है। उसका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उसकी अपनी सहमति ,असहमति है।
यह बहुत बड़ी विडम्बना है की भारतीय घरों का माहौल ही ऐसा होता है जहाँ लड़कियों की सहमति या असहमति को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती। वो अपने माँ बाप के घर में एक ज़िम्मेदारी होती हैं जिससे जल्द से जल्द ब्याह कर माँ बाप अपने सर से उतारने की कोशिश में लगे होते हैं। और फिर जिस समाज ने सदियों से स्त्री को दोयम दर्ज़ा दिया हो, जहा स्त्री के साथ अत्याचार करना वीरता का पर्याय समझा जाता हो वहां ऐसी घटनाएं होना स्वाभाविक ही है। लेकिन अब सहनशक्ति की सीमा समाप्त हो चली है और पीर वाकई पर्वत सी हो गई है। इसका पिघलना ज़रूरी है क्योंकि बात सिर्फ एक निर्भया या अभया की ही नहीं बल्कि हर उस लड़की की है जो आज हमारे समाज का हिस्सा है या आने वाले भविष्य में होगी।
पूजा
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मुझे नहीं पता की दुष्यंत कुमार ने ये पंक्तियाँ किस सन्दर्भ में लिखी थी लेकिन आज जो परिस्थितियां हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा की आज हमारी पीर वाकई पर्वत सी हो गई है और अब इसका पिघलना बेहद ज़रूरी है। आज ये पीर बहुत गहराई से उठी है। एक औरत जो सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही थी , आज तेज़ाब पी कर अस्पताल के एक बिस्तर पर पड़ी है। ये पीर तब भी उठी थी जब दिल्ली में एक लड़की के साथ भयावह तरीके से गैंगरेप हुआ था। ये पीर लगभग रोज़ उठती है। आप अखबार उठा कर देखिये शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब औरतों से जुड़े किसी अपराध की खबर न हो। लेकिन हम भुल्लकड़ लोग , कहाँ याद रख पाते हैं देर तक इन खबरों को। कितनी अजीब सी बात हैं न की जिस खबर को पढ़ कर सुबह तक हमारा खून ख़ौल रहा था शाम तक वही खबर बेमानी हो जाती है।
हम जिन अपराधी तत्वों से डरते हैं उनकी हौसलाअफ़ज़ाई कौन करता है ? क्या हमारा डर हमारी सुविधा भोगी प्रवृति नहीं ? सब कुछ पुलिस और प्रशासन तो नहीं ठीक कर सकता।कुछ ज़िम्मेदारी तो हमारी भी है। लेकिन हमें तो भाई आदत है सुख सुविधा से लैस अपने घर में बैठ कर देश और दुनिया की राजनीती पर मीन मेख करने की। कुछ बुरा हो जाये तो च.... च... च करने की। हमारी इसी छद्म संवेदनशीलता का नतीजा है की देश में रोज़ न जाने कितनी निर्भया गैंगरेप का शिकार बन रही हैं और न जाने कितनी अभया रोज़ तेज़ाब से नहलाई जा रही हैं। ये लड़कियां जिस दर्द से गुज़रती हैं क्या उसे कोई सरकारी मुआवज़ा कम कर सकता हैं? कभी नहीं। उनके दर्द को हमारी दया हमारी सहानुभूति भी कम नहीं कर सकती है। अगर हमें वाकई इन घटनाओ से दुःख होता है चोट पहुँचती है तो हमें हर हाल में इनके खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए।
और इसकी शुरुआत अपने घर से करनी होगी । अपने बेटों, भाइयों को इस बात का अहसास दिलाना होगा की पुरुषत्व किसी स्त्री का बलात्कार करने में या उसके ऊपर तेज़ाब फेंकने में नहीं है। उन्हें बताना होगा की स्त्री सिर्फ तुम्हारे भोग की वस्तु नहीं है। उसका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उसकी अपनी सहमति ,असहमति है।
यह बहुत बड़ी विडम्बना है की भारतीय घरों का माहौल ही ऐसा होता है जहाँ लड़कियों की सहमति या असहमति को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती। वो अपने माँ बाप के घर में एक ज़िम्मेदारी होती हैं जिससे जल्द से जल्द ब्याह कर माँ बाप अपने सर से उतारने की कोशिश में लगे होते हैं। और फिर जिस समाज ने सदियों से स्त्री को दोयम दर्ज़ा दिया हो, जहा स्त्री के साथ अत्याचार करना वीरता का पर्याय समझा जाता हो वहां ऐसी घटनाएं होना स्वाभाविक ही है। लेकिन अब सहनशक्ति की सीमा समाप्त हो चली है और पीर वाकई पर्वत सी हो गई है। इसका पिघलना ज़रूरी है क्योंकि बात सिर्फ एक निर्भया या अभया की ही नहीं बल्कि हर उस लड़की की है जो आज हमारे समाज का हिस्सा है या आने वाले भविष्य में होगी।
पूजा
औरत के खिलाफ यह न पहली घटना है न आखिरी। निजी तौर पर मुझे लगता है क़ि ऐसी घटनाओं में काफी कमी आयी है। समाज़ का ढांचा और रवैया कुछ ऐसा है कि कमजोर को हर तरह से सताया जाता है जो कमजोर इसकी रवायतों के ख़िलाफ़ खड़ा हो, लड़े उसे तो किसी भी हद तक। लेकिन लड़ने वालों कि लगातार कुर्बानियों के चलते ऐसे अपराधों में कमी आयी है। अपने कानूनी हक़ को लेकर सचेत होना, लगातार प्रतिरोध ही रास्ता है, हालांकि काफी लम्बा है। वैसे भी औरत कमजोरोँ में भी कमजोर है। दलितों में भी दलित है। संस्कारों का भी बोझ है, जिसकी कसौटी हमेशा पुरूष की ओर ताकते और उसके लिये तैयार रहना है। अत्याचार न सहन करना ही रास्ता है,जो उन्होंने किया वह हारे हुए लोंगो का काम है । उम्मीद कायम है क्योंकि बदलाव को महसूस किया जा सकता है ।
ReplyDeleteचल अभया अब उठ खड़ी हो,
ReplyDeleteबहुत छल किया तूने खुद के साथ,
अब तक जलेगी अपमान और तेजाब से,
तू तो जगजननी बनने आयी थी,
गर इन भेडियो ने तुझे नोचा,
तो अब बन कर आ चंडी और काली रूप में,
कर दे विनाश इन पापियों का।।