अनारकली ऑफ़ आरा:हाशिये की औरत का विद्रोह
ऐसा बहुत कम होता है की आप कोई फिल्म देख कर निकले और बहुत देर तक अपने साथ के लोगों से ये भी पूछना भूल जाएँ की कैसी लगी फिल्म? अनारकली ऑफ़ आरा देख कर कुछ ऐसा ही हुआ। फिल्म हमारी चेतना पर इस कदर हावी हो गई थी की थिएटर से निकले के बहुत देर बाद तक हम मौन रहे। इस फिल्म का असर वाकई बहुत गहरा और दूरगामी है। फिल्मों से प्यार करने वालों के साथ साथ फिल्म क्रिटिक्स के लिए भी इस फिल्म को भुला पाना आसान नहीं होगा। अपनी बहुत सारी खूबियों के चलते इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों के इतिहास में अपना नाम एक उम्दा फिल्म के रूप में दर्ज करा लिया है।
पिछले कुछ समय से फिल्मों में स्त्री विमर्श की बहुत सी कहानियां देखने को मिल रही हैं। पिंक , पार्च्ड से लेकर हाल फिलहाल रिलीज़ हुई एक बेहद कमर्शियल फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनियां भी कमोबेश इसी मुद्दे को भुनाती हुई दिखाई देती है। लेकिन अनारकली... इन सबसे अलग है। ये एक
ऐसी स्त्री की कहानी है जो ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं , वो गाती नाचती है ,लोगों का मनोरंजन करके अपना पेट पालती है। वो गरीब है उसका साथ और सहारा देने वाला उसका कोई अपना उसके साथ नहीं फिर भी वो कभी भी समझौता नहीं करती। वो गिरती है ,चोट खाती है लेकिन हार नहीं मानती। वो लड़ती है पुलिस से प्रशासन से और समाज के दोगले चेहरे से भी। वो स्वाभाविक रूप से एक साहसी और जुझारू महिला है। अक्सर हमने महिला प्रधान फिल्मो में देखा है की कोई भी स्त्री अन्याय के विरुद्ध तब आवाज़ उठाती है जब पानी उसके सर के ऊपर चला जाता है लेकिन अनारकली ऐसी नहीं है। वो शुरू से ही सही और गलत में फ़र्क़ करना जानती है। इसीलिए एक दृश्य में वो कहती भी है की "जो गलत है वो गलत है। "
गौरतलब है की फिल्म में एक नीचे तबके की महिला जो स्त्री विमर्श के दर्शन और उसकी लफ्फाजियों से कोसो दूर है , अपने आत्मसम्मान के आगे किसी को नहीं टिकने देती फिर चाहे वो कोई भी क्यों न हो। जबकि अक्सर पढ़ी लिखी,सभ्य , सुसंस्कृत महिलाओं में भी ऐसा साहस और आत्मविश्वास देखने को नहीं मिलता। वास्तव में ये हाशिये पर पड़ी हुई महिला का विद्रोह है जिसे हमारे समाज को समय रहते समझ जाना चाहिए।
अनारकली एक ऐसी महिला की प्रतिनिधि है जिसकी कोई 'औकात' नहीं। जिसका कोई संगठन नहीं, कोई नेतृत्व नहीं, और ऊपर से उसका महिला होना उसे एक आसान शिकार बनाता है। जब यहाँ से कोई औरत उठ कर अपने लिए लड़ती है तो उसकी बात ही अलग हो जाती है। अनारकली..... इसी मायने में ख़ास और अलग है।
अनारकली के चरित्र में स्वरा भास्कर ने प्राण फूंक दिए हैं। उन्हें वाकई अपनी किस्मत और फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास को धन्यवाद् देना चाहिए इस भूमिका के लिए। आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में स्वरा भास्कर, ऋचा चड्ढा ,राधिका आप्टे, तनिष्ठा मुखर्जी जैसी बोल्ड और प्रतिभाशाली नायिकाओं की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। ये इन सक्षम नायिकाओं की देन है की हमें एक बाद एक महिला मुद्दों से जुडी कुछ अच्छी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं। फिल्म के संवाद और गीत ही नहीं चरित्रों की वेशभूषा और हाव भाव भी फिल्म के कथ्य और पृष्ठभूमि को बेहद प्रामाणिक ढंग से उभारते हैं। फिल्म में संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी ने एक बार दिल जीत लिया है साथ ही अनवर और हीरामन भैया का किरदार निभाने वाले कलाकारों ने भी कमाल किया है। और हाँ वी. सी. साहब के एक गुर्गे मफलर ( संभवत मफलर पहनने की वजह से हुआ नामकरण ) ने भी खासा ध्यान खींचा है। फिल्म देख कर लगता ही नहीं की ये डायरेक्टर अविनाश दास की पहली फिल्म है और यदि ऐसा है तो वाकई ये बहुत मेहनत और मनोयोग से बनाई गई फिल्म है।
पूजा
पिछले कुछ समय से फिल्मों में स्त्री विमर्श की बहुत सी कहानियां देखने को मिल रही हैं। पिंक , पार्च्ड से लेकर हाल फिलहाल रिलीज़ हुई एक बेहद कमर्शियल फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनियां भी कमोबेश इसी मुद्दे को भुनाती हुई दिखाई देती है। लेकिन अनारकली... इन सबसे अलग है। ये एक
ऐसी स्त्री की कहानी है जो ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं , वो गाती नाचती है ,लोगों का मनोरंजन करके अपना पेट पालती है। वो गरीब है उसका साथ और सहारा देने वाला उसका कोई अपना उसके साथ नहीं फिर भी वो कभी भी समझौता नहीं करती। वो गिरती है ,चोट खाती है लेकिन हार नहीं मानती। वो लड़ती है पुलिस से प्रशासन से और समाज के दोगले चेहरे से भी। वो स्वाभाविक रूप से एक साहसी और जुझारू महिला है। अक्सर हमने महिला प्रधान फिल्मो में देखा है की कोई भी स्त्री अन्याय के विरुद्ध तब आवाज़ उठाती है जब पानी उसके सर के ऊपर चला जाता है लेकिन अनारकली ऐसी नहीं है। वो शुरू से ही सही और गलत में फ़र्क़ करना जानती है। इसीलिए एक दृश्य में वो कहती भी है की "जो गलत है वो गलत है। "
गौरतलब है की फिल्म में एक नीचे तबके की महिला जो स्त्री विमर्श के दर्शन और उसकी लफ्फाजियों से कोसो दूर है , अपने आत्मसम्मान के आगे किसी को नहीं टिकने देती फिर चाहे वो कोई भी क्यों न हो। जबकि अक्सर पढ़ी लिखी,सभ्य , सुसंस्कृत महिलाओं में भी ऐसा साहस और आत्मविश्वास देखने को नहीं मिलता। वास्तव में ये हाशिये पर पड़ी हुई महिला का विद्रोह है जिसे हमारे समाज को समय रहते समझ जाना चाहिए।
अनारकली एक ऐसी महिला की प्रतिनिधि है जिसकी कोई 'औकात' नहीं। जिसका कोई संगठन नहीं, कोई नेतृत्व नहीं, और ऊपर से उसका महिला होना उसे एक आसान शिकार बनाता है। जब यहाँ से कोई औरत उठ कर अपने लिए लड़ती है तो उसकी बात ही अलग हो जाती है। अनारकली..... इसी मायने में ख़ास और अलग है।
अनारकली के चरित्र में स्वरा भास्कर ने प्राण फूंक दिए हैं। उन्हें वाकई अपनी किस्मत और फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास को धन्यवाद् देना चाहिए इस भूमिका के लिए। आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में स्वरा भास्कर, ऋचा चड्ढा ,राधिका आप्टे, तनिष्ठा मुखर्जी जैसी बोल्ड और प्रतिभाशाली नायिकाओं की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। ये इन सक्षम नायिकाओं की देन है की हमें एक बाद एक महिला मुद्दों से जुडी कुछ अच्छी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं। फिल्म के संवाद और गीत ही नहीं चरित्रों की वेशभूषा और हाव भाव भी फिल्म के कथ्य और पृष्ठभूमि को बेहद प्रामाणिक ढंग से उभारते हैं। फिल्म में संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी ने एक बार दिल जीत लिया है साथ ही अनवर और हीरामन भैया का किरदार निभाने वाले कलाकारों ने भी कमाल किया है। और हाँ वी. सी. साहब के एक गुर्गे मफलर ( संभवत मफलर पहनने की वजह से हुआ नामकरण ) ने भी खासा ध्यान खींचा है। फिल्म देख कर लगता ही नहीं की ये डायरेक्टर अविनाश दास की पहली फिल्म है और यदि ऐसा है तो वाकई ये बहुत मेहनत और मनोयोग से बनाई गई फिल्म है।
पूजा
वर्तमान सन्दर्भ में ऐसी ही मूवी की जरुरत है, जो महिलाओं की स्थिति व्यक्त करे।
ReplyDeleteBahut badiya..
ReplyDeleteBahut badiya..
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