चुनावी बयार - यू . पी के बुन्देलखण्ड की तस्वीर
रीतिका शुक्ला
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2017 में विकास की बात की जा रही है ,लेकिन आज हम आपको यू . पी के बुन्देलखण्ड की असली तस्वीर दिखाएगे । गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित बुन्देलखण्ड इलाका पिछले कई वर्षो से प्राकृतिक आपदाओँ से जूझ रहा है। पिछले डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से बुंदेलखंड के किसान आत्महत्या और सर्वाधिक जल संकट से जूझ रहे हैं। यहां जिक्र करना जरुरी है कि बुंदेलखंड में कुल 13 जिले हैं जिनमें से 7 उत्तर प्रदेश में आते हैं जबकि 6 मध्य प्रदेश में आते हैं।हाल ही में हुई जनगणना के मुताबिक बुंदेलखंड की कुल आबादी लगभग 2 करोड़ है। जिसमें से करीब 79 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और इनमें एक तिहाई से ज्यादा घर ऐसे हैं जो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। बुंदेलखंड में पिछले 8 महीनों की दयनीय स्थिति को लेकर एक सर्वे किया गया है। जिसका नाम है बुंदेलखंड ड्राट इम्पैक्ट असेसमेंट सर्वे 2015। इस सर्वे में हैरान और परेशान कर देने वाले तथ्य सामने आए हैं। सर्वे में दावा किया गया है कि बुंदेलखंड में सूखे के बाद से भुखमरी और कुपोषण के हालात हैं। 108 गांवों में कराए गए सर्वे के मुताबिक बुंदेलखंड में पिछले 8 महीने में 53 फीसदी गरीब परिवारों को दाल तक नसीब नहीं हुई है। 69 फीसदी गरीब लोगों ने दूध नहीं पिया है। बुंदेलखंड में हर पांचवां परिवार हफ्ते में कम से कम एक दिन भूखा सोता है।
बुंदेलखंड के 38 फीसदी गांवों में भूख से मौतें हुई हैं। 17 फीसदी परिवारों ने घास की रोटी खाने की बात कबूली है। गौरतलब है कि बुंदेलखंड में उगाएं जाने वाला ‘फिकारा’ एक तरह की पशुओं को खिलाया जाने वाला घास है। लेकिन भुखमरी के चलते लोग इस सूखी घास के बीज को पहले पीसकर आटा बनाते हैं, फिर इस आटे की रोटियां खाते हैं। इसकी रोटी काफी कड़वा होने के बावजूद भूख से व्याकुल चाहे बच्चे हो या जवान सब खाते है। सर्वे के मुताबिक मार्च के बाद से अब तक 40 फीसदी परिवारों ने अपने पशु बेच दिए हैं। जबकि 27 फीसदी ने जमीन बेच दी है या फिर रुपयों के लिए गिरवी रख दी है। फसल बर्बाद होने की वजह से बैंक और साहूकारों के कर्ज के बोझ में दबे किसान मौत को गले लगा रहे हैं। यहां 25 से लेकर 70 साल की उम्र तक के किसान कर्ज और आर्थिक परेशानी की वजह से आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। हालांकि, सरकारों ने कभी नहीं माना कि किसान कर्ज या भूख की वजह से ऐसे कदम उठा रहे हैं।अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो अप्रैल वर्ष 2003 से मार्च अब तक करीब चार हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं।और अब तक अधिकाश किसान 'वीरों की धरती' से पलायन कर चुके हैं। यहां के किसानों को उम्मीद थी की लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दल सूखा और पलायन को अपना मुद्दा बनाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नही और एक बार फिर यह मुद्दा जातीय बयार में दब सा गया है। और न ही किसी रजनीतिक दल ने इसको विधान सभा चुनाव का मुददा बनाया। यहां का किसान आज भी 'कर्ज' और 'मर्ज' के मकड़जाल में जकड़ा है। तकरीबन सभी राजनीतिक दल किसानों के लिए झूठी हमदर्दी जताते रहे, लेकिन यहां से पलायन कर रहे किसानों के मुद्दे को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया गया।
कुछ ऐसा ही हाल बांदा जिले की अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित नरैनी विधानसभा सीट में गुढ़ा नाम के गांव का भी है, जहां पिछले दस सालों में कुपोषण, भुखमरी और आर्थिक तंगी से सैकड़ो लोगों की मौतें हो चुकी हैं। उनकी विधवाएं भी मुफलिसी की जिंदगी गुजार रही हैं, लेकिन इन विधवाओं को न तो कोई सरकारी मदद मिली और न ही उनके 'दर्द' को कोई भी राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा ही बना रहे। इनके सुध लेने वाला कोई भी नहीं है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकते है कि भारत में महिलाओ का इतना बुरा हाल है।
गौरतलब है कि इन विधवाओं को अब तक कोई सरकारी मदद नसीब नहीं हुई और अब तो इनका परिवार दो वक्त की रोटी को तरस रहा है। इस सीट से कुल 13 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं, लेकिन किसी ने भी इन विधवा महिलाओं के 'दर्द' को अपने चुनावी मुद्दों में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी।आखिर ये किस प्रकार का विकास है , जहाँ महिलाओ का जीवन यापन करना मुश्किल हो चुका है । अब तक इन महिलाओ को पेंशन तक नहीं नसीब हुई। इन महिलाओं की जुबानी सिर्फ बानगी है, इस इनके दर्द को छूने की कोशिश न तो सरकारी मशीनरी ने की और न ही चुनाव के मैदान में डटे उम्मीदवार ही मददगार बने। नेता जी जनता का दर्द देखने का प्रयास तो करिये । ये वक़्त है अपने लिए सही प्रत्याशी को वोट देने का । आपका वोट अमूल्य है , तो मतदान अवश्य करे।
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