बहुत दिनों से मन था की इस पर कुछ लिखूँ। आज बैठ ही गई ये सोच कर की लिख ही डालना है कुछ। इसमें तो कोई शक नहीं कि तकनीकी विकास ने हमारे जीवन को बाहर ही नहीं बहुत अंदर तक प्रभावित किया है। मुझे याद है की बचपन में सुबह उठते ही हमें अपनी हथेली देखने को कहा जाता था। घर के बड़ो का कहना था की सारे ईश्वर हमारी हथेली में ही वास करते हैं इसलिए हमें पहले अपनी हथेली देखनी चाहिए। फिर दो एक मंत्र थे जिनका जाप भी लगे हाथ हो जाता था। वक़्त बदला और आज हालत ये है की सुबह उठते ही सबसे पहले हम अपना मोबाइल ढूंढने लगते हैं। गुड मॉर्निंग या सुप्रभात से शुरू हुआ ये सिलसिला दिन भर तरह तरह के संदेशों चुटकुलों और रात में गुड नाईट पर जा कर ख़त्म होता है। सन्देशों के आदान प्रदान के बीच बहुत से रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं। वर्चुअल वर्ल्ड के ये रिश्ते कितने सच्चे कितने झूठे हैं इनकी पड़ताल ज़रूरी है।

सबसे पहले तो हमें इस बात पर गौर करने की ज़रुरत है की किसी भी रिश्ते की बुनियाद क्या होती है। कोई कहेगा विश्वास कोई कहेगा प्रेम कोई कहेगा आपसी समझ लेकिन मेरे ख्याल से कोई भी रिश्ता मज़बूत बनता है परस्पर साझेदारी से। जब हम किसी का दुःख किसी की ख़ुशी किसी की उलझन या पीड़ा को साझा करने लगते हैं तो स्वाभाविक रूप से वह व्यक्ति हमसे निकटता का अनुभव करने लगता है। ये साझेदारी ही है जो एक परिवार समाज या समुदाय के बीच एकात्मकता और लगाव पैदा करती है। आमतौर पर एक दुसरे से कटे कटे रहने वाले एक परिवार के सदस्य जब किसी उत्सव में इकठ्ठे होते हैं तो उनके बीच प्रेम की धारा स्वाभाविक रूप से फूट पड़ती है।वहीँ किसी दुःख की घडी में पूरा परिवार एक दुसरे के प्रति पहले से ज़्यादा संवेनदशील हो जाता है। इसकी वजह निश्चित रूप से साझेदारी की भावना है। परिवार के सदस्य हो या समाज की इकाइयां जब एक जैसी परिस्थितियों से गुज़रते है तो उसमे एकता की भावना सामान्य दिनों की अपेक्षा ज़्यादा हो जाती है। यानि संबधो को दृढ़ और चिरस्थाई बनाती है साझेदारी और साहचर्य। ध्यान दीजिये की युद्ध की घडी हो या प्राकृतिक आपदा की मार कैसे पूरा राष्ट्र एक जाता है।

वर्चुअल वर्ल्ड में बन रहे रिश्तों के बारे में भी यही बात लागू होती है। किसी को गुड मॉर्निंग कह देने से या किसी की पोस्ट्स को बार बार लाइक या कमेंट करने से कोई रिश्ता बन जाए ये ज़रूरी नहीं। ये किसी रिश्ते की ओर पहला कदम हो सकता है लेकिन वास्तविक यात्रा तो इसके बाद शुरू होती है। और इस यात्रा में काम आती है परस्पर साझेदारी। किसी के विचारों को सुनना उसके दुःख सुख के प्रति संवेदनशील होना और अपनी सीमायों के भीतर रहते हुए निकटता का आभास देने से ही वर्चुअल दोस्ती वास्तविक दोस्ती में तब्दील हो सकती है। कई बार वर्चुअल वर्ल्ड में बन रही दोस्ती को ही लोग वास्तविक दोस्ती समझ बैठते हैं और इसकी वजह से कई बार

संकट में भी पड़ जाते हैं । और कई बार ऐसा भी होता है कि वास्तविक दोस्तों से ज़्यादा अपनापन फेसबुक या व्हाट्सएप्प के दोस्तों से मिलने लगता है। ज़ाहिर सी बात है कि दोस्ती चाहे वर्चुअल हो या वास्तविक दोनों में ही सच्चे हृदय साफ़ नियत और निस्वार्थ भावना की ज़रुरत है। फर्क सिर्फ इतना है की वर्चुअल वर्ल्ड में अपनी निजी जानकारिया सूचनाएं या भावनाये व्यक्त करने में ज़्यादा सतर्कता और जागरूकता की ज़रुरत होती है।
पूजा
thanks ayushi
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