देयर इज़ नो ऑनर इन किलिंग

 कल वैलेंटाइन डे था यानी प्यार का दिन।  सोशल मीडिया से लेकर बाजार तक इसके खुमार में गिरफ्त था। पिछले एक हफ्ते में  फूल चॉक्लेट और टेडी खूब बिके। लोगों ने प्रेम गीत गाये प्यार का इज़हार किया।  हमने भी इस बहती गंगा में हाथ धोये और दूसरे  मुद्दों को किनारे रख  कर केवल प्रेम को अपने ब्लॉग में तरजीह दी।  लेकिन इन सारी शोशेबाजियों के बीच कुछ मूलभूत सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं। कुछ ऐसे सवाल जिनसे हम सब कभी कभी न ज़रूर टकराते हैं लेकिन हम उनको अक्सर नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जाते हैं।
                  कुछ दिन पहले मैंने फिल्म NH 10 देखी।  जिन्होंने भी ये फिल्म देखी  होगी  उन्हें याद होगा कि  इस फिल्म की शुरुआत का एक घंटा  कितना डरावना है। इस  एक घंटे में  एक तरह से  ऑनर किलिंग का लाइव टेलीकास्ट होता है। जिसके गवाह भूलवश  फिल्म के नायक नायिका बन जाते हैं। यहीं से उनके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी की शुरुआत हो जाती है जिसका अंत नायक की मृत्यु और फिर नायिका द्वारा लिए गए प्रतिशोध के साथ होता है। ये शादीशुदा जोड़ा विवाह के कुछ समय बाद  छुट्टियां मनाने निकलता है और एक ऐसी परिस्थिति में फँस जाता है जो कभी
 उनकी कल्पना से भी परे था। 
                फिल्म में
नायक और नायिका उस वर्ग से आते हैं जहाँ प्रेम करना और अपनी मन मर्ज़ी से विवाह करना कोई बहुत गंभीर मसले नहीं हैं। यहाँ स्त्रियां आत्मनिर्भर हैं न केवल आर्थिक रूप से बल्कि अपने  ढंग से अपना जीवन जीने के लिए भी। लेकिन अचानक जिन परिस्थितियों से उनका सामना होता है वहां की तस्वीर बिलकुल उलट है। यहाँ प्रेम एक गुनाह है और एक लड़की का अपनी मनमर्ज़ी से विवाह कर लेना तो जघन्य अपराध है क्योंकि ऐसा करने से परिवार की इज़्ज़त खाक में मिलती है। फिर ऐसे अपराध की सजा सिर्फ मौत ही है वो भी भयानक मौत। हम अखबारों में टीवी पर ऐसी खबरें पढ़तें और सुनते  आए हैं। जहाँ प्रेमी जोड़ों को नृशंस रूप से मौत के घाट उतार दिया जाता है। इन दो वर्गों के बीच मध्यम  वर्ग भी है जहाँ प्रेम उस सीमा तक स्वीकार्य है जहाँ तक वो परिवार की  सामाजिक आर्थिक और सबसे मत्वपूर्ण जातीय सीमाओं का अतिक्रमण न करता हो। इस वर्ग में ऑनर किलिंग तो लगभग न के बराबर है लेकिन यहाँ प्रताड़ना के दू सरे तरीके हैं। जिसका खामियाजा ज्यादातर  स्त्री ही भुगतती है। यहाँ हिंसा शारीरिक न होकर मानसिक रूप से होती है।
                                          ऐसा समझा  जाता है की हिंसा पुरुषत्व का गुण  है। हमारे इतिहास पुरुषों को उनके   शौर्य के लिए याद किया जाता है । हिंसात्मक होना पुरुषत्व की निशानी मानी जाती  है और पीढ़ियों को उनके द्वारा दिखाई गई वीरता ( जिनमे अधिकांशता हत्याएं शामिल होती हैं )  पर गर्व करने का पाठ पढ़ाया जाता है। जबकि प्रेम को मूलत: एक स्त्रैण गुण  माना जाता है। ऐसा माना जाता है की शौर्य दिखाना पुरुष का गुण है  और प्रेम करना गीत गाना चित्र बनाना स्त्रियों के।" मर्द को दर्द नहीं होता" और "मर्द रोते नहीं "जैसे मुहावरे यूं ही तो नहीं बने। क्योंकि रोती तो स्त्रियां हैं। यही उनका स्वाभाव है यही उनकी नियति भी। इसलिए जब कभी प्रेम अपने पंख फैलाता है मर्दवादी समाज उसे कुचलने की फ़िराक में जुट जाता है।
            ज़ाहिर है  जो समाज जितना अधिक मर्दवादी होता है वो प्रेम का उतना ही बड़ा विरोधी होता है। मर्दवादी होने का अर्थ सिर्फ मर्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उस सोच से है जिसमे तानाशाही है दमन है। फिल्म NH 10 में दीप्ति नवल गांव की मुखिया और उस लड़की की माँ हैं जिसको प्रेम करने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया जाता है। यहाँ ये देख कर हैरानी होती है की वो अपनी बेटी की इस जघन्य हत्या में बराबर की साझीदार हैं।  वो अपने परिवार के पुरुषों को इस हत्या के लिए उकसाती है। यहाँ एक स्त्री होकर वे उसी मर्दवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो हर मासूमियत और कोमलता को कमज़ोरी का पर्यायं समझती है।
                                                                           पूजा 

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    1. behtreen lekh hai. aapne sahi likha hai ki samajik aarthik sthitiyon, paristhitiyon se bani banayi gayi hamari soch ki seemayen hoti hain. samaj ke sandarbh me unka apna mahtva hai. prem ki bhavna mukhya roop se swachchhand aur vyaktigat hai to samaj ke sath anghrsh bhi swabhavik hai. samajik aarthik dhanche me lagatar aisa badlav hua hai ki samajikta me kami aayi hai aur vaiktikta badhi hai, isase samaj me 'prem' ka scope badha hai. mera manana hai ki aap jaise log jo baaton ko gahrai se samjhte hai unhe lekhn ke madhyam se longo ke gyan chkshu kholne ke alawa thoda jokhim lete hue sakriya hastkshep bhi karna chahiye. asha karta hu kuchh hazam hua hoga. dhanyavaad.

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